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7.7.08

संवेदनाओं के मकड़जाल

रोज मेरे हाँथ में होता है-
एक कोरा काग़ज़,
जिसपर बनाने की कोशिश करता हूँ-
मैं कोई आकृति-
जिसमे दिखूं मैं, मेरी सोच,
खीचता हूँ ढेर सारी रेखाएं
कुछ छोटी, कुछ लंबी-
कुछ संवेदनाओं के मकड़जाल की तरहउलझी हुई-
एक में गुत्थम-गुत्था.
रंग भी भरता हूँ,
हर तरह के-
हर एक प्रतीकों केरंग
सोच के रंग,मंथन के रंग,
झुझलाहट के रंग-
फ़िर अंत में देखता हूँ एक ऐसी तस्वीर,
जिसमें कुछ नहीं दिखता,
कुछ समझ में नहीं आता।
न उन आड़ी तिरछी रेखाओं का mahatva ,
न ही उनका मतलब.
रंग भी कुछ नहीं कह paate
sunn हो जाते हैं, बिल्कुल निशब्द.
एक सन्नाटा पसर जाता है
कुछ टूट जाता है achanak
waqt दहाडें मारते हुए गुजर जाता है
train की तरह, धड धड धड
कुछ अनसुना रह जाता है-
एक निर्जन पुल की कराह की तरह

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