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30.7.08

तुष्टिकरण चालू रहेगा

देश में हुए बम धमाकों ने तमाम सारे बुद्धिभोगियों के लिए सामान दे दिया. इधर मारे गए लोगों का दर्द नहीं है, दर्द है कि उनके विचारों को तवज्जो नहीं दी जा रही है. बमों के धमाकों ने किसी को कुछ दिया तो नहीं पर इन लोगों को जरूर बहस का मुद्दा दे दिया है. बम धमाकों की आड़ में हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर चर्चा आम हो गई है. कौन ज्यादा इस देश का है कौन इस देश का नहीं है, भाजपा ने क्या किया था, कांग्रेस ने क्या किया था.......अब दोनों क्या कर रहीं हैं, ये बात खोजी जा रही है.
बमों के साथ एक बार फ़िर गुजरात दंगों-बाबरी मस्जिद ने अपना सर उठाया है. सर उठाने के पीछे यही बुद्धिभोगी काम कर रहे हैं. बात की जारही है कि यदि बाबरी मस्जिद न गिराई जाती तो ये बम धमाके न होते. गुजरात दंगों में मुसलमानों को मारा गया इस कारण ये धमाके हुए हैं. क्या ये सही है? इसका उत्तर वे लोग हाँ देंगे जो किसी न किसी रूप में मुस्लिम तुष्टिकरण का रास्ता अपनाए हैं. यदि बाबरी मस्जिद ही एक मात्र कारण है तो क्या उसके पहले बम नहीं फ़ुट रहे थे? इसी तरह सभी साहित्यकारों को, फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े जावेद अख्तर टाईप के लोगों को गुजरात दंगों में मरने वालों के प्रति संवेदना है पर वेही किसी भी रूप में गोधरा में रेल काण्ड की चर्चा भी नहीं करते हैं. आख़िर क्यों? क्या गोधरा में मरने वाले इंसान नहीं थे? क्या इस देश में मुस्लिम के दंगे में मरने पर ही लोगों की संवेदना जगती है? क्या हर तरह की आतंकी घटना के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदू ही जिम्मेवार होता है? यही तमाम सारे सवाल हैं जो कुछ फिरकापरस्त लोगों को कहने का मौका देते हैं कि "सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं है पर सारे आंतकवादी मुस्लिम हैं."
इस तरह के एक-दो नहीं कई उदहारण हैं जो समाज को अलग-अलग खेमे में बाँट रहे है. संसद हमले के आरोपी अफज़ल गुरु की फांसी की सज़ा पर अज तक कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है, जबकि इसके ठीक उलट धनञ्जय चटर्जी को फांसी पर इतनी आनन्-फानन लटकाया गया था जैसे वो देश का बहुत बड़ा दुश्मन हो. क्या देश की संसद पर हमला करने वाला देश का दोस्त है जो संसद पर हमला कर उस ईमारत की मजबूती जांच रहा था? हमारा कहना है संसद पर हमला करने वाला कोई भी हो उसको तो उसी समय गोली मार देनी चाहिए थी जब वो पकडा गया था. यहाँ हिंदू या मुस्लिम वाली बात ही नहीं है. पर ये हमारे देश की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है कि यहाँ आतंकवादी अपहरण करते हैं और छूट जाते हैं क्योंकि वे मुस्लिम हैं, एक आतंकवादी अबू सलेम चुनाव लड़ने तक का मन बना लेता है क्योंकि वो भी मुस्लिम है और तो और हास्यास्पद बात तब होती है जब देश की कुछ राजनैतिक पार्टियाँ परमाणु डील पर सरकार को इसलिए समर्थन देने को तैयार होती हैं क्योंकि उनको समझाया जाता है कि ये डील मुसलमानों के हितों के ख़िलाफ़ नहीं है. वह रे तुष्टिकरण की नीति, अब विदेश नीति भी इनको ध्यान में रख कर बनाई जायेगी।
समय आ गया है जब मुसलमानों को ख़ुद अपना अच्छा बुरा सोचना होगा. राजनीती उनको ऊपर उठाने के स्थान पर रसातल में ले जा रही है. बमों के धमाकों में हिंदू भी मरते हैं और मुसलमान भी, दंगे मुस्लिम भी करता है और हिंदू भी, धर्म दोनों के लिए महत्वपूर्ण है तब एक क्यों वोट की राजनीती का शिकार होकर ख़ुद को समाज में संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है? जहाँ तक बात तमाम बड़े-बड़े ठेकेदारों की है जो मुस्लिम समाज के स्वयम-भू ठेकेदार बने घूम रहे हैं वे ख़ुद बताये कि इन बम धमाकों में उनकी बोलती क्यों बंद हो गई है? ये लोग भी इस समाज को संदेहित बनाने का काम करते हैं. इनसे भी होशियार रहने की जरूरत है. क्या देश के मुस्लमान इस बात को समझेंगे?

2 comments:

हिज(ड़ा) हाईनेस मनीषा said...

हिंदू... हिंदू....हिंदू....
मुसलमान...मुसलमान....मुसलमान
सिख... सिख...सिख
ये संबोधन और इनके साथ जुड़ा आतंकवादी शब्द एक गलत तस्वीर पेश कर देते हैं। न हिंदू न मुस्लिम न ही सिख बल्कि आतंकवादी सिर्फ़ आतंकवादी ही कहलाया जाए ये हमें अपने लेखन में ध्यान रखना होगा......

Anonymous said...

भाई,
ये धार्मिक शब्द ने ही तो हमारे देश का कबाडा कर रखा है, लोग धर्म के नाम पे लड़ें या ना लड़ें मगर कुछ चुने हुए मठाधीश को इन के लड़े बिना अपने मठ के ध्वस्त होने का खतरा होने लगता है. वैमनस्यता धर्म में नही वरन धर्म के ठेकेदारों में है.
हिन्दू, या मुसलमान या फिर ईसाई या फिर कोई भी धर्म, किसी को आप कैसे कठघरे में कर सकते हैं जबकि हमाम के सभी नंगे पैरबरदार ही हैं.
धर्म को आतंक के साथ जोरकर धर्म को बदनाम ना करो क्योँकी आतंकी सिर्फ आतंकी ही तो होता है.