राज्य गठन के आठ साल पूरे होने को हैं। नवसृजित राज्य ने अपने रास्ते में कई उतार-चढाव देखे। इस पूरे कालखंड में कई सपने साकार हुए, तो कई बिखरे भी। पेशे से मैं एक डॉक्टर हूं. समाज के हर तबके, हर वर्ग से अपने प्रोफेशन की बदौलत रिश्ता बनता चला जाता है। समाज के अमीर-गरीब सबकी मनोभावना, आकांक्षा और फिर पीडा अनुभव करती हूं। निःसदेंह यहां के लोगों के भी सपने हैं।राज्य की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है। यानी इस आधी आबादी के गुजर-बसर का संकट है। रोटी, कपडा और मकान जैसे मौलिक चीजों के लिए यह वर्ग संघर्ष करते जीवन काट रहा है। ऐसे में आप यह मानकर चलें कि समाज ये वंचित लोग अपने बूते अपनी स्वास्थ्य की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। अपने ईलाज के लिए अस्पतालों तक नहीं आ सकते हैं। इनके पास संसाधन नहीं हैं, पैसे नहीं हैं, जिससे ये सरकार या फिर निजी क्षेत्र की सेवाएं ले सके। बीमार एवं कुपोषित जिंदगी अभाव में ही कट जाती है। ऐसे में आप बिना इनकी जिंदगी को संवारे और बिना स्वस्थ बनाये एक सबल राज्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। राज्य की ये पूरी आबादी मायने रखती है। इनको नजरअंदाज कर हम आगे बढ ही नहीं सकते हैं। समाज के ऐसे लोगों तक जबतक सरकार की सेवाएं नहीं पहुंचेंगी, इनके चौखट तक समाधान नहीं पहुंचेंगी, तबतक राज्य स्वस्थ नहीं बन सकता है। बीमारियों से अपने घर-गांव में लडते ये लोग न विकास की धारा से जुड सकते हैं और न हीं विकास के सहभागी बन सकते हैं। जाहिर सी बात है, हेल्दी स्टेट में ही विकास की सभी अवधारणाएं लागू होते हैं। जिनकी आंखों में रौशनी नहीं है, उनको आप लंबी चौडी सडकें, बडी इमारतें और मेगा मॉल का सपना नहीं दिखा सकते हैं. जो चलने के काबिल नहीं है, उन्हें आप इन सडकों को देकर कुछ भी हासिल नहीं कर रहे हैं। हमें पहले समाज के इन तबकों के बीच पहुंचना होगा। स्वास्थ्य की इनकी जरूरतों को बडे शहरों में सरकारी अस्पताल खोलकर, यहां मशीनें-उपकरणें लगाकर पूरा नहीं किया जा सकता है। आज जबकि सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं हैं, अस्पतालों की कमी है, डॉक्टर प्रर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में तो इनको अपनी कल की योजनाओं पर छोड भी नहीं सकते। किसी भी राज्य सरकार को अस्पतालों का जाल-बिछाने, मेडिकल कॉलेज खोलने और फिर डॉक्टर तैयार करने में कम से कम आठ से दस साल लग जायेंगे। अगर तेजी से भी काम हो, तो इन आठ से दस सालों के लिए ऐसे गरीब लोगों को चंद अस्पतालों और कुछ डॉक्टरों के भरोसे नहीं छोडा जा सकता है। सबकुछ कल पर नहीं टाला जा सकता है। ऐसे में उन निजी अस्पतालों को भी आगे लाना होगा, जिन्होंने अच्छे संसाधान जुटाये हैं और उससे बढकर समाज को कुछ देने का जज्बा भी रखते हैं।
3 comments:
बुरा मत मानियेगा कि मुझे बस एक बड़ा सा एडवर्टाइजमेंट जैसा दिख रहा है,हो सकता है कि मेरी सतही सोच आपकी बात की गहराई न समझ पाई हो...... वैसे इसकी जगह यहां न हो कर भड़ास4मीडिया(B4M)पर है.....
जय जय भड़ास
PR ka dhanda....
मैं भारती कश्यप को लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय से जानता हूं। तब से जब से वह अपने श्वसुर डा कश्यप की विरासत अपने पति डा बीपी कश्यप के साथ डंगराटोली चौक पर अपने छोटे से अस्पताल में संभालती रही थीं। आज कश्यप मेमोरियल हास्पीटल रांची की धरोहर बनकर खड़ा है। अंतर्मुखी डा बीपी कश्यप की काबिलियत झारखंड और देश के नेत्र चिकित्सक जानते हैं। उनका स्वभाव संत जैसा है। काम करो, सिर्फ काम। इसके विपरीत डा भारती कश्यप का बहिर्मुखी स्वभाव भी सब जानते हैं। कश्यप मेमोरियल हास्पीटल की बिल्डिंग की तरफ से गुजरते हुए कई बार देखा, तो मन में यही ख्याल आया, जरूर यह बुलंद इमारत, जो हर दिन सैकड़ों नेत्रहीनों के जीवन में प्रकाश भरती है, भारती कश्यप जैसी लौह महिला के आत्मविश्वास, जुनून और पैशन के बिना खड़ा हो पाती क्या? इस इमारत की सौविनिर को पढ़ते हुए यही लगा, इस तरह का अस्पताल तो लंदन में होना चाहिए था। यहां इसकी कद्र आखिर कौन करेगा? स्वास्थ्य विभाग के रहनुमा अगले १० साल में डेढ़ सौ पीएचसी बनाने का दावा करते हैं, क्या उन्हें पता है कि उनकी सत्ता की मियाद कितने साल है। लाम-काफ में लगे और सत्ता का सुख भोग रहे नेताओं से इस अस्पताल को कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। शायद ही किसी को एहसास हो कि झारखंड के जिस गुमला, सिमडेगा, चक्रधरपुर, पलामू और अन्य कई इलाकों में अंधापन अभिशाप बना हुआ था, वहां डा भारती कश्यप और डा बीपी कश्यप ने दसियों दिन लगातार कैंप लगाकर मरीजों की अनवरत सेवा की। इसके बाद भी उनकी इम्पैथी देखिए, शहर को दिया अंधापन निवारण के लिए एक सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, जिसके उदघाटन के बाद सरकार ने अस्पताल के साथ किसी तरह का संबंध बनाने की भी जरूरत नहीं समझी। होना तो यह चाहिए था कि सरकार इस अस्पताल के साथ समझौता कर राज्य के नेत्रहीनों के इलाज की मुकम्मल व्यवस्था सुनिश्चित कराती, पर सत्ता के बारे में रात-दिन सोचनेवाले लोग इतने इम्पैथेटिक कभी नहीं हो सकते। डा भारती कश्यप का सिंगल वूमन इफोर्ट ही कहिए कि उन्होंने अस्पताल में ऐसी-ऐसी सुविधाएं जुटा रखी हैं, जो शंकर नेत्रालय और एम्स से भी बेहतर हैं। पर इसकी चरचा कम होती है। कई बार वहां बैठे दूर-दराज के रोगियों को देखा है, जो आते तो हैं निराश, पर जाते वक्त आंखों की रौशनी पा लेने की रौनक उनके चेहरे पर झिलमिला रही होती है। मंत्री से संतरी, अधिकारी से पदाधिकारी- हर तबके के लोग इस अस्पताल खुद या अपने संबंधियों का इलाज कराने आते हैं। डा भारती कश्यप उन हाई प्रोफाइल लोगों का मन से इलाज करती हैं- बिना सेवा शुल्क लिए। सबको चश्मा देती हैं, दवाएं देती हैं, आपरेशन निशुल्क या छूट पर करती हैं, पर ठीक होते ही बिसार देते हैं नेता। फिर भी वह भागती रहती हैं, दौड़ती रहती हैं, सबसे अच्छा व्यवहार करती हैं, संबंध बनाने में विश्वास करती हैं, पर कश्यप परिवार की इस विरासत के लिए शहर या सरकार ने आज तक क्या किया। अगर कुछ हो तो हम सबको बहुत अच्छा लगेगा। फर्ज कीजिए ऐसा अस्पताल शहर में नहीं होता तो क्या आप अपनी तकलीफों के लिए शंकर नेत्रालय या फिर वेल्लोर तो जाते ही। कश्यप मेमोरियल हास्पीटल राज्य का गौरव बने और शंकर नेत्रालय से रिटर्न मरीज इस अस्पताल में नेत्रसुख पाएं, क्या इसके लिए कुछ इंतजाम यह सरकार करेगी?
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