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4.1.08

छिट्टा भर खुशी, झोला भर हंसी, बोरा भर चहंक....आपके पास है?

झगड़ों और लफड़ों के बीच हंसी, खुशी और चहंक बड़ी मुश्किल से मिलती है, आती है, दिखती है। अब जबकि हर सूचना पल भर में ही विविध रंग रूप में हमारे सामने आ खड़ी होती है, दुख देने के लिए, रुलाने के लिए, सोचने पर मजबूर करने के लिए, इन सबके बीच ढेर सारा वक्त ठठाकर हंसने के लिए निकालना कितना मुश्किल होता है। और अगर वक्त निकाल भी लिया तो क्या पता,हंसी आएगी भी नहीं। हंसी तो उस हरियाली की तरह महानगरों से गायब हो चुकी है जो प्रदूषित धुएं की वजह से जली-भुनी सी दिखती है, ठूंठ दरख्तों पर। मुंबई हो या दिल्ली, भागमभाग और आकांक्षाओं के बीच संतुलन साधते जीवन की डोर पकड़ते पकड़ते उम्र निकलती, आगे बढ़ती, भागती सी दिखती है और मजेदार है कि इसका पता भी नहीं चलता। पता चलने के लिए सोचना होगा और सोचने के लिए वक्त चाहिए और वक्त मिलेगा तब जब आप खाली हों और अगर एक पल भी खाली हुए तो समझो पिछड़ने का खतरा। कारपोरेटाइजेशन का यह सेकेंड स्टेज है। जो नौकरियां और बिजनेस-धंधे इससे बचे हुए थे और जहां धूप में निकलकर चाय पीते हुए गपियाने की गुंजाइश हुआ करती थी, वहां भी कारपोरेटाइजेशन वाले भाइ-बंधुओं ने सोटा चलाना शुरू कर दिया। किसी के खाली रहने की तो बात ही अब छोड़िए, हर कोई ओवरलोडेड दिखना चाहिए।

इसी सब उधेड़बुन के बीच, सीएनजी बसों और ब्लूलाइन बसों से लोगों के कुचलने के बीच, मुंबई और असम में लड़कियों- महिलाओं को कुचलने-खत्म करने की कुत्सित कोशिशों के बीच, कल तक सामने दिखती सी लगती बेनजीर के एकाएक शहीद हो जाने के बीच, भयंकर ठंड बढ़ने के बीच, राजनीति के नाम पर पारी पारा पादते रहने की पुरातन प्रक्रिया के बीच.....

...कहीं किसी ने जोर से कहा.....छिट्टा भर खुशी, झोला भर हंसी और बोरा भर चहंक...आपके पास है?

मैं सोचता रहा।

अं आं उं आं हूं हम्म... करते हुए कुछ साफ साफ बोल पा, नहीं पा रहा था।

फिर आवाज आई.....चिहुंको ना, चहंको..कोशिश करो, हंसो, खुश होओ...

पर कैसे...वो तो कोशिश करने पर भी हो नहीं रहा। लाफिंग क्लब या बाबा रामदेव की क्लास में बैठना होगा। वो ज्यादा कोशिश करने पर रुलाई आती है। क्योंकि इतना सब रील सामने चल रहा है, मारकाट वाला, रेप वाला, देश-समाज में संकट वाला। हम तो कामरसियल फिलिम देखना चाहते हैं, गोविंदा वाला। बेवकूफी भरा, उलजुलूल, ताकि हंसी आए और मन खुश रहे। लगे कि हां, इस देस समाज में हंसने की गुंजाइश है लेकिन जो मुझे दिख रहा है, या दिखाया जा रहा है उसमें तो हर सीन रुलाने वाले हैं। पैथेटिक। ट्रैजिक। दुखांत। रोते-कलपते। मर्सिया पढ़ते।

सब खोल खोल के दिखा रहे हैं, ये देखो, वो लड़कियां, जिनके कपड़े फाड़ दिए गए, लगभग नंगा कर दिया गया। नहीं देखा, अगली फोटो देखो, अगले विजुअल में साथ रहो, ब्रेक लेते हैं, डटे रहना, अभी चड्ढी दिखेगी उन लड़कियों की, चेहरा तो जाने कबके दिखा दिया, उन लड़कियों के साथ वहां तो जो हुआ सो हुआ, आओ यहां भी तुम कुछ कर लो, मन ही मन, अंदर ही अंदर। अब तो आने वाले जमाने में ये सब फिजिकल बहुत कम होगा, सब मन ही मन और अंदर ही अंदर, फोन ही फोन पर, आंखों ही आंखों में...कल्पनाओं में ही सब इतना हो जाएगा कि फिजिकल करने की क्या जरूरत होगी, वैसे भी हर दूसरा आदमी औरत एड्स वाला या वाली होगी या इस आशंका से ग्रस्त होगी तो कौन थोड़े मिनट के लिए मुंह और लिंग और हाथ का इस्तेमाल करे। तो लो देखो.....देखा...ये असम की वो ब्लैक ब्यूटी आदिवासी महिलाएं हैं जो बिलकुल नंगी हैं और इनकी योनि और स्तन पर किस तरह लात मारा जा रहा है। ये देखो मुंबईवाली लड़कियां, जब जींस फटता है तो अंदर कैसा दिखता है। नहीं नहीं...ये सब लिखा थोड़े है...फोटो देख के महसूस करो, विजुअल देख के अंदर ही अंदर दिमाग में करो। बाहर लिखना और कहना और बताना हो तो शर्म शर्म कहकर भीड़ के भाषण का हिस्सा बन जाना। पक्षधर दिखना। प्रगतिशील दिखना। महिलाओं के साथ खड़े हो जाना.....।

उफ्फ, क्या लेकरर बैठ गया। सुबह सुबह। चलो, मजा ले लिय, अंदर अंदर । अब कुछ अच्छी बातें कर लें....। क्या आपके पास है...छिट्टा भर खुशी, झोला भर हंसी और बोरा भर चहंक...। चिहुंकिये नहीं, चुगली करिये.....प्लीज..।

जय भड़ास
यशवंत

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