हम शर्मिंदा हैं कि हम एक ऐसे व्यवसाय से जुड़े हैं, जिसका काम लोगों में वैज्ञानिक चेतना और शिक्षा के प्रचार -प्रसार की जगह भय और अंधविश्वास का बढ़ावा देना हो गया है। मीडिया की इसी नासमझी ने मध्यप्रदेश के सारंगपुर जिले के आशारेता गांव की निवासी 16 वर्र्षीया छाया की जान ले ली। पृथ्वी की उत्पत्ति समझने के लिए किए जा रहे एक वैज्ञानिक प्रयोग को मीडिया ने इस तरह प्रचारित किया कि इस बच्ची ने मानसिक संतुलन खो दिया और दुनिया खत्म होने के डर से जहर खाकर आत्महत्या कर ली। हो सकता है कि पुलिस इस मामले में निजी टीवी चैनलों पर आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का मुकदमा दर्ज करे और हो सकता है कि न भी करे। गोल मानी जानेवाली ये दुनिया भले ही खत्म हो न हो, पर मीडिया ने छाया की दुनिया खत्म कर दी। मीडिया को लेकर लंबे समय से हम बहसों में उलझे हैं कि यह मिशन है या प्रोफेशन। लेकिन लगता है कि यह निर्लज्ज पूंजीवाद का ऐसा अंग बन गया है, जो लोगों को अनपढ़ बनाए रखने और उनकी एकता को तोड़ने के हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। पहले तोहमत समाचार पत्रों पर ही लगाई जाती थी, पर निजी टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचारों (अगर उन्हें समाचार कहा जा सकता है, तो) ने तो स्वरूप को और भी बिगाड़ दिया है। आम आदमी की जिंदगी की जो बात पहले कभी-कभार हो जाती थी, वह अब बिल्कुल ही बंद हो गई है। जिंदा लोगों की बात करने में इन्हें परहेज है, पर भूत-प्रेतों पर घंटों एक ही कार्यक्रम चलता रहता है। हो सकता है कि भूख से मरा कोई व्यक्ति भूत बनने के बाद ही अपनी व्यथा इन समाचार चैनलों पर सुना सके, जिंदा रहते उसकी बात सुनने को तो कोई तैयार नहीं है। धरती के रहस्य को जानने के लिए किए जा रहे प्रयोग को महाप्रलय का नाम देकर लोगों को डराना इनके लिए अपनी टीआरपी बढ़ाने भर का एक साधन है। भाग्यवादी और धर्मभीरु इस देश की जनता पर इसका क्या असर पड़ने वाला है, इसकी चिंता उन्हें नहीं है। वे बता रहे हैं कि अगर महाप्रलय से बचना है, तो काशी-मथुरा चलो। जो हिंदू नहीं हैं या जिनमें काशी-मथुरा जाने की कूवत नहीं है, उन्हें बचने का अधिकार नहीं है क्या?
1951 में अमरीका ने भारत के बारे में एक विस्तृत सर्वेक्षण कराया था, आज भी अमरीका उसी सर्वेक्षण के आधार पर अपनी नीतियां बनाता है। इस सर्वेक्षण का केन्द्र बिन्दु एक सांस्कृतिक संगठन था। सर्वेक्षण के अनुसार अगर हिन्दुस्तानी जनता की एकता को तोड़ना है, तो इस संगठन को बढ़ावा देना होगा। उसी के बाद से अमरीका ने इस संगठन को वित्तीय सहायता देना शुरू किया और फिर उसका विस्तार होता चला गया। अमरीका आज भी उसी दिशा में काम कर रहा है और पूंजीवाद के इशारे पर काम करनेवाले निजी चैनल इसी संगठन के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। राम के पदचिन्हों से लेकर कृष्ण के सिंहासन को ढूंढ़ने के नाम पर खोजी पत्रकारिता की जा रही है। रावण कहां पैदा हुआ था, कैसा था, यह अनुसंधान का विषय हो गया है। अगर किसी सिक्केपर राम का चिन्ह मिल जाए, तो एक घंटे का कार्यक्रम तैयार हो जाता है। सीता की साड़ी और शंकर के त्रिशूल को खोजने के काम में लगे रिपोर्टरों पर लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं। देश की बेरोजगारी, भुखमरी, पलायन, बच्चों की तस्करी, दहेज के लिए मारी जा रहीं महिलाएं, दवाओं के अभाव में दम तोड़ता बचपन, वैश्यावृत्ति की तरफ धकेली जाती बच्चियां इनकी टीआरपी नहीं बढ़ातीं।
निजी चैनलों का हाल यह है कि देश-विदेश के मुख्य समाचार देखना-सुनना भी मुश्किल हो गया है। 24 घंटे चलनेवाले इन चैनलों में पूरी रात कार्यक्रमों को दोहराया ही जाता है। दिन के समय में दो घंटे खली निकाल देता है, दो घंटे अश्लील चुटकुले सुनाने वाले खराब करते हैं, दो घंटे बाबा बैरागी लोगों को ग्रह- दशाओं के नाम पर डराते रहते हैं, कुछ समय टीवी पर चल रहे रियलिटी शो के अंश दिखाने में निकल जाता है। गंडे-ताबीज से लेकर एकमुखी रुद्राक्ष का प्रचार-प्रसार इन चैनलों पर किया जाता है। ग्रहण अगर किसी त्योहार के दिन हुआ, तो ये आदमी को इतना डरा देंगे कि उसका घर से निकलना ही बंद हो जाए। अब महाप्रलय नहीं हो सकी, तो उसकी तिथि आगे बढ़ा दी गई है। कहा जा रहा है, कि प्रलय अब २२सितम्बर होगा। इन घोर अवैज्ञानिक चैनलों के लिए केन्द्र सरकार के पास कोई उपाय नहीं है। यह सारा भयादोहन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है। अगर छाया ने आत्महत्या की है, तो उसके लिए जितनी जि?मेदारी इन निजी चैनलों की है, उतनी ही जिम्मेदार केन्द्र सरकार भी है, जो इन पर अंकुश लगाने में स्वयं को अपाहिज महसूस करती है। हमें पता है कि इस आत्महत्या के बाद भी केन्द्र सरकार और निजी चैनलों को कोई शर्मिंदगी नहीं होगी। लेकिन हम जैसे मुट्ठी भर लोग, जिनके लिए पत्रकारिता व्यापार नहीं है, शर्मिंदगी महसूस कर सकते हैं और कर रहे हैं।
साभार : देशबंधु
www.deshbandhu.co.in
1951 में अमरीका ने भारत के बारे में एक विस्तृत सर्वेक्षण कराया था, आज भी अमरीका उसी सर्वेक्षण के आधार पर अपनी नीतियां बनाता है। इस सर्वेक्षण का केन्द्र बिन्दु एक सांस्कृतिक संगठन था। सर्वेक्षण के अनुसार अगर हिन्दुस्तानी जनता की एकता को तोड़ना है, तो इस संगठन को बढ़ावा देना होगा। उसी के बाद से अमरीका ने इस संगठन को वित्तीय सहायता देना शुरू किया और फिर उसका विस्तार होता चला गया। अमरीका आज भी उसी दिशा में काम कर रहा है और पूंजीवाद के इशारे पर काम करनेवाले निजी चैनल इसी संगठन के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। राम के पदचिन्हों से लेकर कृष्ण के सिंहासन को ढूंढ़ने के नाम पर खोजी पत्रकारिता की जा रही है। रावण कहां पैदा हुआ था, कैसा था, यह अनुसंधान का विषय हो गया है। अगर किसी सिक्केपर राम का चिन्ह मिल जाए, तो एक घंटे का कार्यक्रम तैयार हो जाता है। सीता की साड़ी और शंकर के त्रिशूल को खोजने के काम में लगे रिपोर्टरों पर लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं। देश की बेरोजगारी, भुखमरी, पलायन, बच्चों की तस्करी, दहेज के लिए मारी जा रहीं महिलाएं, दवाओं के अभाव में दम तोड़ता बचपन, वैश्यावृत्ति की तरफ धकेली जाती बच्चियां इनकी टीआरपी नहीं बढ़ातीं।
निजी चैनलों का हाल यह है कि देश-विदेश के मुख्य समाचार देखना-सुनना भी मुश्किल हो गया है। 24 घंटे चलनेवाले इन चैनलों में पूरी रात कार्यक्रमों को दोहराया ही जाता है। दिन के समय में दो घंटे खली निकाल देता है, दो घंटे अश्लील चुटकुले सुनाने वाले खराब करते हैं, दो घंटे बाबा बैरागी लोगों को ग्रह- दशाओं के नाम पर डराते रहते हैं, कुछ समय टीवी पर चल रहे रियलिटी शो के अंश दिखाने में निकल जाता है। गंडे-ताबीज से लेकर एकमुखी रुद्राक्ष का प्रचार-प्रसार इन चैनलों पर किया जाता है। ग्रहण अगर किसी त्योहार के दिन हुआ, तो ये आदमी को इतना डरा देंगे कि उसका घर से निकलना ही बंद हो जाए। अब महाप्रलय नहीं हो सकी, तो उसकी तिथि आगे बढ़ा दी गई है। कहा जा रहा है, कि प्रलय अब २२सितम्बर होगा। इन घोर अवैज्ञानिक चैनलों के लिए केन्द्र सरकार के पास कोई उपाय नहीं है। यह सारा भयादोहन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है। अगर छाया ने आत्महत्या की है, तो उसके लिए जितनी जि?मेदारी इन निजी चैनलों की है, उतनी ही जिम्मेदार केन्द्र सरकार भी है, जो इन पर अंकुश लगाने में स्वयं को अपाहिज महसूस करती है। हमें पता है कि इस आत्महत्या के बाद भी केन्द्र सरकार और निजी चैनलों को कोई शर्मिंदगी नहीं होगी। लेकिन हम जैसे मुट्ठी भर लोग, जिनके लिए पत्रकारिता व्यापार नहीं है, शर्मिंदगी महसूस कर सकते हैं और कर रहे हैं।
साभार : देशबंधु
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9 comments:
दोस्त आपका नजरिया काबिले गौर है। किसी व्यवसाय विशेष को चमकाने में मर्यादायें तथा नैतिकता के साथ-साथ संस्कार कहीं पीछे छूट गये हैं। क्या समाज इस विडंबना को मूक दर्शक होकर देखने का अपराधी ही रहेगा?
ठीक ही लिखा है आपने, लेकिन इन बिना गांड़ गरदन के पत्रकारों को और चैनलों को देखने वाले भी उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे जागरुक कहे जाना वाला यह वर्ग स्वयं शोषित है। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाला पत्रकार स्वयं एक चपरासी की तरह काम करता है।
ठीक ही लिखा है आपने, लेकिन इन बिना गांड़ गरदन के पत्रकारों को और चैनलों को देखने वाले भी उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे जागरुक कहे जाना वाला यह वर्ग स्वयं शोषित है। दूसरों के लिए आवाज उठाने वाला पत्रकार स्वयं एक चपरासी की तरह काम करता है।
Bhai
Ham bhi utne hi jimmedar hai jitna ye saale chaneel wale
salon ko special channel kholna chaiye only for Bhooooooooooooooooooooooots.
ye kab sudhrenge
क्या करियेगा साहब......अपनी-अपनी डपली, अपना-अपना राग......अब इनकी ढपली को फोड़ने का समय आ गया है.
media apni zimmedari se bhag nahi sakta lekin iske liye samaj ko bhi jagna hoga.
मेरी भी ऐसी ही धारणा है मेरे ब्लॉग पर और भी कुछ है ................
i think there is no hope. we will have to wait and fight
भाई,
शर्मिन्दा होने कि जरूरत ही नहीं है, हाँ ऐसे पत्रकारों की गांड पर लात मार कर जहाँ जहाँ ये पहुंचे से भगा दो, समाज के ये आतंकी समाज में रहने के अधिकारी ही नहीं हैं.
जय जय भड़ास
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