की बोर्ड पर थिरकती उंगलियां
मॉनिटर पर जड़ नज़रें,
इतने बड़े हॉल में
बैठा है अकेला..
रात भर जगकर
थक चुका है वह
उंगलियों की थिरकन में
कोई लय नहीं है,
पलकें भी अब तो
कुछ बोझिल हो चली हैं।
लम्बे समय से
टिपटिपाता जा रहा है वह...
दरअसल
तो पेशा है यह उसका,
रात भर जगकर
जोड़ता है शब्दों को
बिखरे हुए तथ्यों को
जिन्हे हर सुबह देखते हैं आप
अपने टीवी सेटों पर
समाचार के रूप में।
हाव-भाव से झलक रहा है
उसे ये काम पसंद नहीं,
फिर भी मन मारकर
है वह तल्लीन,
उसे पसंद नहीं यह काम
वह लिखना नहीं
बोलना चाहता है,
लोग सलाह देते हैं उसे
घिस लो खुद को
पाषाण से बन जाओ सान
तभी तो आगे बढ़ पाओगे
कहां किसी की सुनता है
जो मन में आए
वही वह करता है,
फिर भी चुप है वह
खुद को घोंट रहा है
दबा रहा है कामनाओं को,
नाममात्र के धन में भी
कर रहा है गुज़ारा...
है एक ही आस
कि आएगा एक दिन ऐसा
जब मिलेगा उसे मौका
मनमाफिक कुछ करने का
एक मौका
सूरज सा चमकने का
निकला है जो बाहर
(ये पंक्तियां मेरे मित्र आदर्श राठौर ने लिखी हैं जो इस वक्त एक समाचार चैनल में कार्यरत हैं)
12.4.09
नाइट शिफ्ट ओवर करके....
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