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14.5.09

सरफ़रोशी की समां दिल में जला लो यारों

जब देश आज़ाद हुआ तो  आम  आदमी का हाथ ही एकमात्र पार्टी थी। पचास साल से अधिक समय तक देश पर इसी पार्टी ने शासन कियासत्ता सुख के मद में लोकतंत्र की दुर्गति इस पार्टी ने जितना किया शायद दुनिया के किसी और लोकतान्त्रिक देश के साथ ऐसा नहीं हुआ। 
 
देश की आबादी के बढ़ने के साथ-साथ गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, मंहगाई जैसे दानव दिनों-दिन बढ़ते गएइन्हीं दानवों के बल पर सत्ताधारियों ने बार-बार लोकतंत्र में लूटपाट कीजिसके हाथ में जब सत्ता की बागडोर आयी चाहे  कमल का फूल हो, आम आदमी का हाथ हो सभी ने लूटने में कोई क़सर नहीं  छोड़ी।  और इसके साथ क्षेत्रीय पार्टियों साइकिल, हाथी, हँसिया और हथौड़ा, लालटेन आदि ने भी अपना-अपना हाथ साफ़ किया
                                मंहगाई के चलते कई बार सरकारें गिराई गईदेश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। जनता की गाढ़ी कमाई को चुनावों में सर्फ़ कर दिया गया। देश को घोर आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ासमय बदला कईयों ने अपना चोल बदला। पहले एक पार्टी थी। अब कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली पार्टियाँ पैदा हो गई हैंक्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कोई कोई अपनी पार्टी का झंडा ताने खड़ा है। राजनीति अब व्यापार नीति में  तब्दील हो चुकी हैउसका चरित्र  और चाल सब कुछ बदल चुका हैसामूहिक  विकास की भावना का बलात्कार हो चुका हैव्यक्तिगत स्वार्थ-हित का मुद्दा सभी नेताओं ने लक्ष्य बना रखा है। 
 
चुनाव आते ही नारों और वादों की झमाझम बारिश शुरू हो जाती हैवोटरों को ख़रीदा जाता हैउन्हें जाति, धर्म, भाषा के नाम पर बरगलाया जाता है।  जब ये नेता चुनाव जीतकर दिल्ली के संसद भवन में पहुंचते हैं तो लोकतंत्र के साथ लूटपाट करना शुरू कर देते हैंजनता से किए  वादे भूलकर अपनी जेबें भरने में जुट जाते हैंनेता यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि देश से अगर गरीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद ख़त्म हो जाएगा तो कोई इन्हें पूछेगा तक नहींहम भावुक भारतीय लोग भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि ये नेता किसी के सगे नही होतेवोट लेने के लिए वोटरों के पैर तक छूते हैं और जीत जाने के बाद पहचानते तक नहीं
                                                  जबसे मैंने होश संभाला है, लोकतंत्र को लुटते ही देखा हैकभी गरीबी के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी मंहगाई के नाम पर, कभी आतंकवाद के नाम पर और नेताओं के निजी स्वार्थों के नाम परहमारे लोकतंत्र के साथ लूटपाट का सिलसिला कोई नया नहीं हैइतिहास उठाकर देखें तो ऐसे लुटेरों का नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैलोकतंत्र को लूटने का सिलसिला आज़ादी के बाद भी उसी गति से जारी रहाकुछ बदला तो बस लूटने वालों का चेहरा
 
इन नेताओं ने हम लोगों के बीच इस तरह मतभेद पैदा कर  रखा है की कोई भी  व्यक्ति  अपने निजी हित से ऊपर उठकर सोच ही नहीं पाता राष्ट्रवादी  सोच और विकास की भावना की जैसे हम सबमें रिक्तता गई हैजिसका फायदा कोई भी राजनीतिक दल आसानी से उठा लेता हैफलस्वरूप लोकतंत्र के साथ लूटपाट करता है
 
                                                               आख़िर कब तक हम यूँ ही बेबस और लाचारों की तरह अपने लोकतंत्र को लुटते हुए देखते रहेंगे  ? आख़िर कब तक लुट रहे लोकतंत्र को बचाना होगासरफ़रोशी की शमां फ़िर से जलाना होगा......................
सरफ़रोशी की शमां
 
दिल में जला लो यारों..........यारों..........
 
लुट रहा चैनो-अमन
 
मुश्किलों में है अपना वतन......!

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