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10.10.09

कुछ कविताएं...


इसी साल, यानी 2009 के के मार्च महीने में, पता नहीं किन मनःस्थितियों, भावनाओं, अहसास और कल्पना के अजीब-से सामंजस्य के बीच कुछ कविताएं लिखी थीं. जब पढ़ा, तो लगा कि इनमें कई जगह वैयक्तिकता इतनी हावी है कि साहित्य तो छीज गया है...गायब हो गया है. कितने ही दिन गुज़र गए. आज फिर कहीं मिल गईं ये पंक्तियां...चलताऊ भाषा में कहूं, तो अजब गुस्सा आया...खूब धोया-पटका-छांटा-निचोड़ा और फिर जो कुछ बचा, उसे पेश कर रहा हूं. अब इसमें से मैं और मेरी वैयक्तिकता तकरीबन गायब है...हां, अहसास तो हैं ही, क्योंकि वो ना हों, तो कविता कैसे बने?




द्वंद्व

चरित्र?
हड्डियों की ठठरी, मांस-मज्जा...
या मन भर
या इनसे बनी-बुनी भाव-भूमि
साथ की तलाश में देह के बिंधने की विवशता!
शरीर रोटी नहीं, जो बासी हो
फिर भी
शुचिता और अपवित्रता बोध के बीच उफनना?
चेहरा पानी से धुल क्यों नहीं हो पाते हम ताज़ा?


नहा लें...

चुंबनों से सराबोर होकर भीगें
हों गो-मुखी गंगा सरीखे पवित्र
मिलें तर्क, झूठ और आवरण के बिना...
फेंक दें तन और मन की पोटलियां
कोहरे से ठिठुरे किसी झुरमुट के पीछे
नहा जाएं नेह-नीर से।


दोहरापन

आंखों से टूटते दो बूंद
थरथराते-सहमते होंठ, कांपते हाथ
हाथ, जिन्हें थाम सिहर उठा मन
कहां समझ पाया...
घुटन के बाद भी जुड़े रहे तार
प्रीति कहां हो सकती है छलावा!
माफ़ करना दोहरेपन के लिए!


गुड़िया

ज़ुबान से रिसते संबोधन
आंखों में तिरती पीड़ा
होंठ से बरसती मुस्कान
सीने से चिपकी, स्नेह और भरोसा पीती
गोद में छिपी पच्चीस साल की उम्र
शुक्रिया...
गुड़िया संभालकर रखने के लिए
कहीं खुद की बुनाई उधेड़ देती
तो नुच जाता मेरा भी तन-मन!

गुड्डा
नहीं ओढ़ी चमकदार खाल
लपेटे रहा खुरदुरापन, दहकता हुआ सीना,
उबलती आंखें लगातार,
फिर क्यों
चेहरे के खेत में नहीं उगी
गुड़िया के साथी की शक्ल?


कहां देखा वसंत?

मुरझाई शाख पर खिला
बस आंख के साथ के सहारे
कहां देखा वो वसंत
कहां सुनीं वो कविताएं
जो रची किसी ने भी हों
पर कही-पढ़ीं साथ-साथ
कहां देखा उन्माद और वासना पर
प्यार की उछाल का असर
देखी-परखी चीज़ों के बीच गढ़े नए प्रतीक
घास पर उतर आया कोहरा
भेल में नवरस का मज़ा
और ऑटो में विमान-सी रफ़्तार
तब कहां रह गए हम
नीम-बेहोशी में जब प्रेम के सिवा कुछ भी बाकी नहीं था!


कैसा जीवन-कैसे साथी?
एक चुटकी सिंदूर
सात फेरे
और सोलह साड़ियां
साथ की आस में चले जीवन भर के साथी
झूठ कहा नहीं
हरदम गढ़ा असत्य
पल-पल झुलसा सलोनापन
बहेलिए और बटोही के बीच जैसी फ़ितरतें
कैसा जीवन, कैसे साथी?

चाय और चाह
याद हैं ना वो चाय के घूंट
कभी प्लास्टिक, कभी ग्लास और कई बार कुल्हड़ों में सिमटे
दूध नहीं, ना ही पत्ती और चीनी
पर कैसे गले के नीचे उतरता जाता था वो गर्म पानी
चाय के किसी अहसास के बिना
बस गर्म होती चाह की अनुभूति...
अब कहां वो चाय और कहां वो चाह
काश, लौट आए गर्म पानी में कैपेचीनो सा मज़ा
आह...ये तो उपमा ही गलत हो गई, चाय के बीच कॉफी की बात!
कोई बात नहीं...यही सब होता है प्रेम और बावलेपन में…

2 comments:

Unknown said...

शुचिता और अपवित्रता बोध के बीच उफनना?
चेहरा पानी से धुल क्यों नहीं हो पाते हम ताज़ा?bahut badiya
chandi dutt ji acha laga padhker aapko

Unknown said...

नहीं ओढ़ी चमकदार खाल
लपेटे रहा खुरदुरापन, दहकता हुआ सीना,
उबलती आंखें लगातार,
फिर क्यों
चेहरे के खेत में नहीं उगी
गुड़िया के साथी की शक्ल?
wah
bahut badiya ...
acha laga
wakai kavyatmak aur nav pratiman ....