लोकेन्द्र सिंह राजपूत
बड़ा अजीब लगता है जब कोई मर्यादाओं का दंभ भरने वाला ही मर्यादाओं को तार-तार करता है। मेरे शहर की एक दुनिया (खबरों की दुनिया ) में अभी गजब की हलचल मची हुई है। कारण हैं एक बड़े अखबार को दूसरे अखबार से चुनौती मिलना। इस फेर में शहर के पुराने और माने हुए अखबार की मति ही फिर गई है। कल हुए उसके आयोजन से तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है। जानकारी के अनुसार उस बड़े अखबार की सम्पादकीय विभाग ने कल एक क्लब में शराब पार्टी का आयोजन किया। अब मुझे और शहर के बहुत से लोगों को उसकी शराब पार्टी से इसलिए तकलीफ है कि बुराई का प्रतिकार करने वाले ही खुलेआम बुराई के दलदल में घुसे जा रहे हैं। वे बेशर्मी से इस बात पर गर्व भी कर रहे हैं कि हमने मंहगी और ब्रांडेड शराब का इन्तेजाम पार्टी में किया। वाकायदा पत्रकारों से पूछ-पूछकर लिस्ट बऽवाई कि कौन किस ब्राड की दारू गटकेगा।
.......... हम और आप सभी मानते हैं कि शराब एक बड़ी सामाजिक बुराई है जिसके कारण इस देश के कई घरों में रोज कलह होता है। कई परिवारों में बच्चे और औरतों को खाना नसीब नहीं होता। इतना ही नहीं इसी शराब के कारण उन्हें साग-रोटी की जगह लात-घूंसे नसीब होते हैं। हम यह भी बखूबी जानते हैं कि अखबार एक मालिक के लिए पैसे कमाने का जरिया होता है लेकिन पत्रकार के लिए समाज की बुराई पर प्रतिघात करने का अस्त्र होता है। अब चूंकि शराब सामाजिक बुराई है तो उसका प्रतिकार होना चाहिए न कि अखबार और उसके लोगों के द्वारा शराब पार्टी के रूप में आयोजन कर उसको बढ़ावा देना चाहिए।
उड़ गए होश... दारू पीके लुढके पहुंचे अस्पताल
खबर है कि इस पार्टी में फोकट की दारू मिली तो सबने जी भरके गटकी। एक पत्रकार ने तो इतनी गटक ली की होश ही नहीं रहा। घर लौटते वक्त डिवाइडर पर बाइक चढ़ा दी। नतीजा रात को पार्टी से पहुंचे सीधे अस्पताल। चार पैक दारू की जगह निकला बोतलों भर के खून और बह गया सड़क पर। सबके हाथ-पांव फूल गए। कहीं कुछ हो न जाए। हादसे के बाद तो कईयों की दो क्षण में खुमारी उतर गई।
कल से ही इस पार्टी को लेकर शहर भर में चर्चा का बाजार गरम है। और हो भी क्यों नहीं? जब अखबार और उसके लोग ही ऐसा कृत्य करने लगेगें तो फिर हो गई समाज की बुराईंयों को सामने लाने की बात। खुद करो तो कोई बात नहीं एजॉयमेंट और दूसरे करें तो जनता को धोखा, उसकी भावनाओं के साथ छल। ये मेरी पीड़ा नहीं है उस अखबार के कई लोगों की भी पीड़ा है जो उसमें काम करते हैं। कुछ ने अपनी इस पीड़ा से मुझे अवगत कराया तो कई से मेरी बात हुई तो उनका दर्द भी खुलकर सामने आया। उनका भी एक ही रोना था ऐसे ही आचरण की वजह से पत्रकारिता और पत्रकारों की साख में बट्टा लग रहा है। आमजन पीठ पीछे पत्रकारों को तमाम गंदी से गंदी गालियों और उपमाओं से नवाजता है। पत्रकारिता अपना धर्म खो रही है क्षमा करें खो चुकी है। पहले राजनीति सेवा का क्षेत्र थी लोग बड़े सम्मान से नेताओं का नाम लेते थे, अब नेता शब्द ही गाली बन गया। क्यों और कैसे सब जानते हैं। फिर पत्रकारों से जनता की अपेक्षाएं जुड़ गईं। क्योंकि अखबार जनता की आवाज बनकर निकले। गरीब का दर्द बना. असहाय की सहायता अखबार के माध्यम से हुई। जागरूकता का हथियार बना। और अब भटक गए हैं हम। स्वार्थी, कपटी और मतलबी हो गए हैं। अखबार की आड़ में अपने हितों को साध रहे हैं। नेतागिरा ही अब हमारा हाल होने जा रहा है।
17.4.10
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4 comments:
Badhia Prastuti Lokendra ji...
"RAM"
sare patrakar bhai mil kar boorai khatam karne me jute hue the isame koi boorai nahi hai..sabhi ko boorai khatam karni chahiye...
sarab samaj ki boorai hai so ye bhai log ise pi kar khatam kane ki soch rahe honge
mahaan hai guni jan
:-)
शराब एक सामाजिक बुराई है इसे मिलकर खत्म करना चाहिए, लेकिन कैसे? यही देखने का नजरिया है। वैसे ये स्थिति शर्मनाक है। समाज के प्रति जिम्मेदारी ओर समर्पण की भावना का अंत लगभग हो चुका है ओर पत्रकारिता व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है। इस सच को सामने लाने के लिये राजपूत जी बधाई।
लोकेन्द्र जी हो सकता है किसी शराब व्यवसायी या अन्य ने इस पत्र को अपने पक्ष में रखने के लिए इन्हें ये पार्टी दी हो | पत्र मालिकों और कर्मचारियों को और क्या चाहिए था उनकी पाँचों उँगलियाँ शराब में और सर मांस की कढाई में | इन लोगों की नजर में आप और हम बेवकूफ लोग हैं |
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