वैसे तो ये कविता पाकिस्तानी कवि ने लिखी है लेकिन इस कविता की हर पंक्तियां भारत की वर्तमान पत्रकारिता पर अक्षरशः चरितार्थ हो रही है......
उनवान- सहाफ़ी से
(शीर्षक- पत्रकार से)
क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल, (देश की उन्नति का विचार छोड़ दे)
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल, (राष्ट्र निर्माण की चिन्ता छोड़ दे)
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल, (तेरे बैनर पर ही प्रश्न चिन्ह है)
बेज़मीरी का और क्या हो मआल (गिरने की क़ीमत क्या होनी चाहिए)
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल (अपनी लेखनी से बस नाड़े ही पिरो)
तंग कर दे ग़रीब पे ये ज़मीन, (निर्धनों पर अत्याचार में हाथ बंटा)
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे जबीं, (धनपशुओं के आगे नमन करता रह)
ऐब का दौर है हुनर का नहीं, (ये समय बुराइयों का है योग्यता का नहीं)
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल (तेरी यही योग्यता साबित करने का समय है)
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात चले, (किसलिए नई भोर की बात करोगे)
क्यों सितम की सियाह रात ढले, (क्यों तुम अत्याचार की रात की बात करोगे)
सब बराबर हैं आसमान के तले, (तुमने मान लिया है कि सब अच्छा है)
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल (सबको एडजस्ट करने वाला कहता रह)
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
नाम से पेशतर लगाके अमीर, (अपने काम के बजाय अपनी औक़ात को धार दे)
हर मुसलमान को बना के फ़क़ीर, (हर ईमानदार को कमज़ोर बनाकर)
क़स्र-ओ-दीवान हो क़याम पज़ीर, (हर हाल में महल और पद हासिल कर ले)
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल (और सिर्फ़ बयान में ख़लीफ़ा उमर फ़ारूक़ की मिसाल दे)
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
आदमीयत की हमनवाई में, (मानवता का साथ देने के ढोंग में)
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में, (कोई तुझसा नहीं भगवान का दावा करने में)
बादशाहों की रहनुमाई में, (सत्ताधारियों के तलवे चाटने में)
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल (रोज़ धर्म का नाटक रच)
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल
लाख होंठों पे दम हमारा हो, (फिर भी बात अवाम की ही करना)
और दिल सुबह का सितारा हो, (ये दिखाना के जिस सुबह की तू बात करता है वो आएगी)
सामने मौत का नज़ारा हो, (सम्मुख मौत बंट रही हो तब भी)
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल (यही कहना मानवता सुरक्षित है)
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल (अपनी लेखनी से बस नाड़े ही पिरो)
- हबीब जालिब, पाकिस्तान
(1928- 1993)
17.4.10
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल
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