क्रांति को गाली देने वालों की विशव में कमी नहीं है। भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो क्रांति और क्रांतिकारी विचारों को आए दिन गरियाते रहते हैं। क्रांति की असफलता और मार्क्सवाद की असफलता के साथ-साथ कम्युनिस्ट नजरिए की खिल्ली उड़ाते रहते हैं। ऐसे लोगों से यही कहना है कि विचारों की जंग और व्यवस्था परिवर्तन की जंग में फिलहाल पिछड़ गए हैं। लेकिन दुनिया की जटिलतम समस्याओं के बारे में आद भी किसी भी पूंजीवादी विचारक और राजनेता से ज्यादा सटीक समझ किसी क्रांतिकारी के पास ही मिलेगी,किसी मार्क्सवादी के पास ही मिलेगी।
मसलन् हम अपने मौजूदा दौर को ही लें और देखें कि कौन ऐसा नेता है जो ज्यादा सफाई के साथ इस दुनिया को देख रहा है ? इसका एक ही जबाब होगा फिदेल कास्त्रो। फिदेल ने सारी दुनिया को दिखाया है कि संकट के समय में कैसे समाजवाद की रक्षा की जा सकती है और समाजवाद के मार्ग को त्यागे बिना किस तरह आगे बढ़ा जा सकता है। मार्क्सवाद विरोधियों की मुश्किल यह है कि वे मार्क्सवाद के सटीक प्रयोगों और सटीक विचारों की चर्चा नहीं कर कर रहे हैं बल्कि मार्क्सवादियों के भ्रमित विचारों को सामने रखकर चर्चा करते हैं।
आज सारी दुनिया में नस्लवादी भेदभाव सबसे बड़ी समस्या है। भारत में यह छूत-अछूत, छोटे -बड़े,सवर्ण-असवर्ण, ब्राह्मण-शूद्र, हिन्दू-मुसलमान के भेद के रूप में प्रचलन में है। इस भेदभाव को ईश्वरकृत और स्वाभाविक मानने वालों की समाज में अच्छी-खासी संख्या है। फिदेल कास्त्रो ने इस प्रसंग में लिखा है ‘‘ नस्लवाद, नस्ली भेदभाव और विदेशी द्वेष मानव की सहज स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं नहीं हैं। ये तो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रवृत्तियां हैं जो मानव समाज के पूरे इतिहास में युद्धों, सैनिक विजयों, गुलामी तथा सर्वाधिक शक्तिशाली द्वारा सर्वाधिक कमजोर के वैयक्तिक या सामूहिक शोषण से सीधे-सीधे पैदा होती हैं। ’’ भेदभाव की समस्या को बगैर किसी पूर्वशर्त के सम्बोधित किया जाना चाहिए। यह ऐसी समस्या है जिससे आर पलायन नहीं कर सकते। कुछ लोग हैं जो इस समस्या से ऑखें बंद किए हुए हैं और अपने स्वायत्त लोक में जीना चाहते हैं। नस्लीभेदभाव के आधार पर फिलीस्तीनियों के साथ यहूदीवादी इस्राइल के द्वारा बर्बर व्यवहार किया जा रहा है। इन दिनों फिलीस्तीन और इस्राइल दोनों बातचीत के लिए राजी हो गए हैं। नस्लवादी भेदभाव और फिलीस्तीन के संदर्भ में फिदेल कास्त्रो ने मांग की है कि नस्लवाद के शिकार लोगों को हरजाना दिया जाना चाहिए।
फिदेल का मानना है कि हरजाना देना ‘‘नस्लवाद के शिकार लोगों के प्रति अनिवार्य नैतिक जिम्मेदारी है। इसके पहले हिब्रू जाति के वंशजों को इस तरह का हरजाना दिया जा चुका है जिन्हें यूरोप की हृदयस्थली में नृशंस और घृणित नस्लवादी नरसंहार का सामना करना पड़ा था। हम शताब्दियों से इस तरह की कार्रवाई के शिकार लोगों के वंशजों और देशों को खोज निकालने जैसा असंभव कार्य करने के लिए नहीं कह रहे। लेकिन अकाटय तथ्य यह है कि करोड़ों अफ्रीकियों को बंदी बनाया गया, वस्तु की तरह बेचा गया और गुलाम की तरह काम करने के लिए अटलांटिक के उस पार भेज दिया गया। धरती के उस हिस्से में 7 करोड़ मूल निवासी भी यूरोपीय विजय और उपनिवेशीकरण के कारण मारे गए।’’
नस्लवादी शोषण के इतिहास पर रोशनी ड़ालते हुए फिदेल कास्त्रो ने आगे कहा ’’एशिया समेत तीन महाद्वीपों के लोगों के अमानवीय शोषण ने तीसरी दुनिया में रह रहे साढ़े चार अरब लोगों की तकदीर और जिंदगी हमेशा के लिए तय कर दी है। इन लोगों में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, स्वास्थ्य दर, शिशु मृत्यु, जीवन अवधि तथा अन्य बहुत सी चीजों की भयावह तथा रोंगटे खड़े कर देने वाली स्थिति है। वे शताब्दियों तक चले उस अत्याचार के मौजूदा पीड़ित लोग हैं। वे अपने पूर्वजों और देशवासियों के खिलाफ भयंकर अपराध के लिए मुआवजे के हकदार हैं।’’
‘‘वास्तव में बहुत से देशों के आजाद हो जाने तथा गुलामी का औपचारिक उन्मूलन हो जाने के बाद भी यह नृशंस शोषण बंद नहीं हुआ। आजादी के ठीक बाद अमरीकी संघ के विचारकों ने 18वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश प्रभुत्व से मुक्त 13 उपनिवेशों के बारे में निश्चित रूप से विस्तारवादी विचार और रणनीतियां रखीं।’’
‘‘इस तरह के विचारों के आधार पर ही यूरोपीय मूल के श्वेत बाशिंदों ने पश्चिम की ओर कूच करते हुए उस जमीन पर कब्जा कर लिया जिस पर मूल अमरीकी हजारों सालों से रह रहे थे। इस कवायद में लाखों मूल निवासी मारे गए। लेकिन वे पूर्व में स्पेनी कब्जे वाली सीमा पर भी नहीं रुके। इसके परिणामस्वरूप 1821 में आजाद हुए लैटिन अमरीकी देश मैक्सिको के लाखों वर्ग किलोमीटर इलाके तथा बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों को छीन लिया गया।’’
‘‘इस बीच उत्तरी अमरीका में पैदा हुए शक्तिशाली और विस्तारवादी राष्ट्र में 1776 की विख्यात स्वतंत्रता की घोषणा के लगभग सौ साल बाद तक अमानवीय दास प्रथा चलती रही, जबकि इस घोषणा में ही कहा गया था कि जन्म से सभी मनुष्य मुक्त और बराबर हैं।’’
‘‘दास प्रथा से महज औपचारिक आजादी के बाद सौ से अधिक वर्षों तक अफ्रीकी-अमरीकियों के साथ क्रूरतम किस्म का नस्ली भेदभाव चलता रहा। इसके बाद चार से अधिक दशकों तक चले जबर्दस्त संघर्ष तथा 1960 के दशक की उपलब्धियां जिनके लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मैलकम एक्स तथा अन्य विशिष्ट योद्धाओं ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, उनके बाद भी इस दासता की कुछ विशेषताएं तथा प्रथाएं आज भी बरकरार हैं। विशुद्ध रूप से नस्लवादी तर्क के आधार पर अफ्रीकी-अमरीकियों के खिलाफ लंबे तथा अत्यधिक कठोर निर्णय सुनाए जाते हैं। इन्हें धनी अमरीकी समाज में निपट गरीबी और न्यूनतम जीवन स्तर के साथ रहना पड़ता है।’’
‘‘इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका के वर्तमान क्षेत्र के बड़े हिस्से में बसे मूल अमरीकी निवासियों के बचे-खुचे वंशजों को भेदभाव और उपेक्षा की बदतर स्थितियों में जीना पड़ रहा है।’’
‘‘अफ्रीका की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में आंकड़े देने की आवश्यकता नहीं है। पूरे के पूरे देश यहां तक कि पूरा सब-सहारा क्षेत्र समाप्ति के कगार पर है। यह सब आर्थिक पिछड़ेपन, असह्य गरीबी तथा महाविपत्ति बन चुकी नई-पुरानी बीमारियों के अत्यंत जटिल संयोग का परिणाम है। बहुत से एशियाई देशों में भी स्थिति कम भयावह नहीं है। इन देशों पर कभी न चुकाए जा सकने वाले भारी ऋण हैं, व्यापार की विषम शर्तें हैं, बुनियादी वस्तुओं की तबाह कर देने वाली कीमतें हैं, नव उदार भूमंडलीकरण है तथाजलवायु बदलाव है जिसके कारण कभी लंबे अकाल पड़ते हैं तो कभी भारी वर्षा और बाढ़। यह बात गणितीय ढंग से सिद्ध की जा सकती है कि ऐसी स्थिति को संभाला नहीं जा सकता।’’
1 comment:
Krantikarion ke bichar kranti peda krte hai, yeh to sach hai prantu kranti ka swaroop alag alag hota hai.
nischit hi aap bhi is baat ko samajhte hain isliye aapke liye krantikarion ke vicharon ki mahata hai
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