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5.5.11

मेरे मन का वसंत

मेरे मन का वसंत

खेत खलियानों मैं, नदियों विहानो मैं ,घर की मचानो मैं ,
नजर नजरानों मैं ,शीतल बयारों मैं,जल की फुहारों मैं,दिल के विचारों मैं बागरो  बसंत आयो ....
           
      मेरा बसंत आया और चला भी गया.
कोयल की कूक,ठंडी हवा ,मदमस्त  करने वाला मौसम ,आम के बोर ,पीपल की छाव ,सरसों का पीलापन ये सब या तो नाना दादा के गाव मैं देखा या कभी कभी अपने प्यारे शहर भोपाल के आस पास के इलाकों मैं .पर जब से मुंबई मैं कदम रखा लोगो की भीड़,अजीब  सी भाग दौड़ ,हर किसी का अकेलापन ,न जाने कहा जाने की हड़बड़ी बस यही सब देख रही हु, महसूस कर रही हु, और शायद खुद भी कुछ इसी ढंग से व्यवहार करने लगी हू....इसीलिए शायद लोग कहते है ये है मुंबई मेरी जान .
सच है यहाँ पेट भरा जा सकता है मन नहीं ,पैसा कमाया जा सकता है प्यार नहीं,और सोने के सिक्के जोड़े जा सकते है दिल नहीं.......
हाँ तो कहा थे हम  ? देखिए न मुंबई की बातों ने फिर मुझे मेरे वसंत से दूर कर दिया ...........
हाँ तो यहाँ आने के बाद वसंत कभी कभी अख़बारों के पन्नो मैं या कभी किसी मित्र के ब्लॉग पर देखने मिल जाता है.
किसी मौसम का कोई मजा नहीं या यूं कहिये की हर मौसम मैं मजा है .चाहे गर्मी मैं आइसक्रीम खाओ या ठण्ड मैं कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि मौसम हमेशा लगभग एक सा ही रहता है,न ठण्ड से कुद्कुदाने  का मजा ,न बारीश मैं भजिए खाने का ,न भरी गर्मी मैं बर्फ का गोला खाने का .जब जो मन चाहे खाओ पियो क्योंकि हर मौसम एक ही अहसास देता है जल्दी का,भाग दौड़ का,समय की कमी का और सबसे बड़ी बात अकेलेपन का........
मेरे दो वसंत यहाँ आए गए हो गए बिना कोई अहसास दिए ,बिना किसी आहात के वो व्यस्त दिनचर्या के बीच कब आए कब चले गए मुझे भनक तक नहीं लगी....आज जब कही वसंत का नाम देखा कही तो मुझे मेरा भोपाली वसंत आ गया ,कितने खुशनुमा हुआ करते थे वो दिन जब ठण्ड जाने वाली होती थी ,घर मैं बसंत  पंचमी की पूजा ,और फिर होली की तैयारियां ,फूलों  से रंग बनाना ,पिचकारियों भर के हर आने जाने वाले पर रंग डालना ,गुजिया,पपड़ी,सेव ,मिठाई और न जाने क्या क्या भोपाल की पहाड़ियों पर पीले फूल खिल जाते थे और मन आने वाली गर्मियों की छुट्टियों को लेकर उत्साहित हो जाता था ,पर अब तो बस फ़ोन पर ही सुन पाती हू की पापा ने पलाश के फूलों का रंग बनाया,और ढेर सारे फूल इकट्ठे किए होली खेलने के लिए ....
पापा कहा करते थे तुम लोगो ने असली त्यौहार के रंग देखे ही कहा है असली होली तो हम खेलते थे  खेतों  मैं,नदी के पास और भी न जाने क्या क्या और हम मन मसोसकर  रह जाते थे की भोपाल जेसे मेट्रो कलचर के पीछे भागते शहर मैं रहकर हम शायद बहुत कुछ मिस कर रहे है....पर मुंबई आने क बाद इस बात की तो ख़ुशी मिली की हमने बहुत  कुछ असा देखा जो मेट्रो सिटी मैं रहने वाले लोग नहीं देख पाते.....
बस अब तो यही ऐसे  ब्लॉग पर लिखकर मन बहला लेते है बसंत को याद कर लेते है की शायद फिर मेरा खोया वसंत वापस आए और खिला  दे मेरे मन के मुरझाए हुए फूलों को  ........

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