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29.5.11

बनारस में सियासत की सभा




रविकुमार बाबुल

सियासत भी अजीब राह पकड़ कर चलती है, जब इसकी नब्ज ढ़ीली पड़ती है तो यह सरकार को कसते हुये दिखलायी देती है, और जब इसकी पकड़ मजबूत बन चलती है, तो यही सियासत अवाम की पकड़ से दूर हो चलती है, इसकी बानगी देखनी हो तो लाल और हरा के सहारे लौह पथगामिनी के भरे-पूरे मंत्रालय को ही नहीं बल्कि सरकार को भी अपने इशारे पर चलाने का दंभ भरने वाली ममता बनर्जी को देखना होगा? ममता बनर्जी ने इन्हीं हरे और लाल के सहारे कलकत्ता में लाल का सफाया करके न सिर्फ 36 साल का रिकार्ड को तोड़ा, बल्कि अपनी मौजूदगी से बैसाख में सावन का-सा एहसास भी दिला दिया, चारों तरफ हरा ही हरा पसर गया? रेल भवन से राइटर्स बिल्ंिडग का सफर तय कर लेना यह साबित करता है, कि यह ख्वाब किसी सावन के अंधे ने नहीं देखा था? इधर जीत की खुशी में तमाम तरह की बिकने वाली मिठाइयों के बजाये सोनिया गांधी जयललिता को चाय पर बुला कर मुंह मीठा करना चाहें और उनकी ही सरकार के इशारे पर चलने वाली सी.बी.आई. (जैसा की पूर्व में आरोप लगते रहे हैं) कनीमोझी की उंगली पकड़ कर उसे राजा की राह पर ले जाने की अपनी जिद् में सफलता प्राप्त किये बैठी हो, ऐसे में सरकार चलाने की मजबूरी मान डी.एम.के. का समर्थन ले रही कांग्रेस नये और मजबूत मित्र तलाशेगी ही? लेकिन दुश्मन का दुश्मन जब दोस्त बन चले तो फिर सियासत यहीं से शुरु होती है।
राज्यों का यह चुनाव सियासी दलों को क्या चुनौती दे गया, इसका तो आंकलन राजनीतिज्ञ पंडित ही करेंगे, लेकिन गंगा के तीरे जुटे रहने वाले पंडा यह सोच कर हैरान हो रहे होंगे कि आखिर गंगा की तरह मैली हो चुकी सियासत का बनारस के साथ जो नया रिश्ता पनप रहा है, वह सियासत को सियासत की गंदगी से मोक्ष दिलायेगा या फिर गंगा सफाई अभियान की तरह ही सब कुछ वैैसा ही रह जायेगा, जैसा पहले था?
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस से लेकर समाज सेवा के आसरे भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये अन्न त्यागने वाले अन्ना, सभी ने अपनी-अपनी मंजिलें पाने की जिद् के ऐलान के लिये पाक जमीन बनारस को ही चुना।
मायावती ने मुख्यमंत्री रहते हुये भले ही भ्रष्टाचार के आरोपों को दर-किनार कर अपनी आदमकद प्रतिमाएं लगवा ली हों, लेकिन 2012 में उनका लखनऊ में बैठ समूचे उत्तरप्रदेश को अपने इशारे पर चलाना मुश्किल हो चला, लगने लगा है, भाजपा ने जिस तरह अपना चुनावी एजेन्डा बनारस में गडकरी, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी आदि तमाम दिग्गज नेताओं के सरमाये में तय किया है, बहिनजी के लिये अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है? दूसरी तरफ कांग्रेस परिवार के लाड़ले कहें या फिर युवराज राहुल ने बनारस को ही चुना, चुनाव की तैयारी के लिये 18 मई को राहुल ने जिस सिलसिले की शुरूआत की उसे 19 मई को मां सोनिया गांधी ने आगे बढ़ाया। इस उम्मीद के साथ की केन्द्रीय सरकार के गठन में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राज्य उत्तरप्रदेश का नसीब वह बदल कर रख दें, सत्ता बदलने के बहाने। सत्ता का जिक्र चले और सपा को न याद रखा जाये, कैसे मुमकीन है, सपा नेता और विपाशा के अंतरंग मित्र अमर सिंह के कभी बड़े भाई रहे मुलायम सिंह यादव ने भी सत्ता की सीढिय़ां तैयार करने के लिये बनारस को ही अपनी पहली पसंद माना, सियासत के लिये पहली सभा करके। देखना होगा कि भोलेेनाथ की नगरी में किसको सत्ता का प्रसाद मिलता है, इसके लिये तो इंतजार करना होगा? लेकिन संचार-क्रांति के युग में अन्न त्यागने वाले वाले अन्ना ने भ्रष्टाचार को लेकर देशव्यापी मुहिम बनारस से ही शुरु की, टेलीफोन पर रैली को संबोधित करके? त्रि-नेत्रधारी शिव का तांडव, जब हर शख्स की उम्मीद और आसरा बन चला हो, तब अमृतपान के लिये जुटी भीड़ में विष गरल में उतारने वाले को ही सत्ता मिलेगी यह यकीन कर लेना चाहिये?

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