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3.5.11

३० अप्रेल २०११... दिन शनिवार... हिंदी साहित्य निकेतन और ब्लोग्गर्स सम्मलेन...

पाबला साहब का वो कड़ा हाथ... दर्द उठा दिया... वोलिनी का सहारा लेना पड़ा...

३० अप्रेल २०११... दिन शनिवार... हिंदी साहित्य निकेतन के ५० साल पुरे होने के उपलक्ष्य में ब्लोग्गर्स, लेखक, कवियों, पत्रकारों का एक मिलन समारोह... साथ में थी ६४ ब्लोग्गर को सारस्वत सामान देने का कार्यक्रम... पुस्तकों का विमोचन... एक खुबसूरत नाटिका... ब्लोग्गर्स की खुबसूरत वाटिका... चाय थी समोसे-पकोड़े के साथ... और रात्री भोजन लम्बी पंक्ति के बाद...

रविवार का दिन गर्मी और धुप की वजह से अलसाए से कमरे में बिस्तर पे पड़े पड़े बीत गया... वैसे भी मैं चाह रहा था कि लोगों की प्रतिक्रिया पहले देख लूँ... अखबारों में इसके बारे में कुछ पढ़ लूँ... फिर लिखूंगा तलीनता से... पर अभी तक कुछ भी नहीं देखा-पढ़ा है मैंने... कितना इन्तजार करता बैठ गया हूँ लिखने... सोमवार का दिन सुबह से ऑफिस के साथ शुरू हुआ... और कुछ ऐसा घटा कि रात १२ बजे ऑफिस का साथ छुटा... अब रात १२ बजे लौटने के बाद आशा बेकार है कि मैं फिर कुछ और कर सकूँ सिवाय सोने के... आज मंगलवार... अमंगल ही अमंगल... आज तो ऑफिस सुबह ८ बजे ही शुरू हो गया... रात के ८ बजे ख़त्म हुआ... ९.३० बज रहे है... तुरंत वापस आया हूँ... सीधा लिखने बैठ गया हूँ... सोंचा और कितना बासी होने दूँ इस कार्यक्रम को... अब तो लिख देता हूँ... ऐसा न हो कि मेरे लिखने से पहले ही ये खबर गर्मी की मार से सड़ जाये...

रविवार को बड़े उत्स्साह से चार चार हिंदी अखबार खरीद लिए... सोंचा हिंदी सम्मलेन था... अखबार की सुर्खियाँ तो जरूर बटोरी होंगी... फिर कई नामचीन हस्ती भी थे... सबसे ज्यादा अखबार वाले जिनके पीछे भागते है उन्ही में से एक छोटे से मगर खुबसूरत राज्य उत्तराखंड के मुख्यमंत्री "श्री पोखरियाल" जी भी मौजूद थे... मगर आश्चर्य किसी भी अखबार में एक पंक्ति की भी खबर नहीं... फिर सोंचा क्या करेंगे इस खबर को छाप कर... अच्छा ही किया जो नहीं छपा... आखिर पढता ही कौन... जब हिंदी से कोई मतलब रहा नहीं तो हिंदी सम्मलेन से क्या मतलब???.... पर फिर भी थोडा आशा हिन्दुस्तान से जरूर था... आखिर नाम में कम से कम हिन्दू तो जुडा ही है... दैनिक जागरण का जागरण तो मैं जानता हूँ... पंजाब केसरी से उम्मीद भी नहीं थी... नयी दुनिया तो वैसे भी नयी दुनिया को समर्थन करती लगती है... पुरानी भाषा और पुराने लोगों का क्या काम... खैर छोडो इन बातों को... कोई बेकार में बुरा मान गया तो लोग मुझे दोष देंगे...

दिल्ली में पहली बार किसी सम्मलेन में भाग लेने का मौका मिला... अविनाश जी को इसका श्रेय दूंगा जो ऐसे आयोजनों को सर्व-जन सुलभ बनाते है...
गिरिराज जी को उनकी यात्रा के ५० वर्ष की बहुत बहुत बधाई और उनके जीवन परिचय के बाद उनके लिए उनके सम्मान में मेरा झुका हुआ सर दोनों हाजिर है... पर उनसे ज्यादा मैं सम्मान उनकी धर्मपत्नी डॉ. मीना अग्रवाल जी को देना चाहूँगा... रविन्द्र प्रभात जी को बधाई दूंगा उनके अच्छे मंच-संचालन और उनकी दो पुस्तकों के विमोचन के लिए... रश्मि प्रभा जी को भी बधाई और मेरे तरफ से बहुत सारी दुआ उनकी साहित्यिक पत्रिका "वट-वृक्ष" के लिए... पोखरियाल "निशंक" साहब को उनकी "अचूक सफलता" के लिए बधाई... गीतिका जी को खुबसूरत पंक्तियों से दिल को छूने और माता-पिता के जीवन को हमारे सामने जीवंत करने के लिए बधाई... उन ६४ ब्लोग्गर्स को बधाई जिन्होंने सारस्वत सम्मान पाया... और उन सबको शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जिन्होंने महफ़िल में शामिल होकर उसे सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया...

और मेरी सबसे बड़ी बधाई एन एस डी के नाट्य मंडली को जिन्होंने अपने जीवंत अभिनय से हम सबका दिल जीत लिया...

मेरे लिए ये दिन कुछ ख़ास था... लिखना कब शुरू किया, क्यों किया मुझे नहीं पता... पर जिन दो लोगों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है वो है स्व. डॉ. हरिवंश राय बच्चन और डॉ. अशोक चक्रधर ने... एक ख्वाब तो पूरा कर नहीं सका.. पर दूसरा ख्वाब पूरा हुआ... अपनी डायरी पर अशोक जी एक हस्ताक्षर और उनके साथ एक फोटो... दोनों मिल गयी... बची हुई ख्वाब जब कभी ऊपर जाऊंगा तो पूरा कर लूँगा... रश्मि प्रभा जी, शमा कश्यप जी, संजय भाष्कर जी, ओम आर्य जी, निर्मला कपिला जी, अविनाश वाचस्पति जी, राजीव तनेजा जी एवं और भी अन्य ब्लोग्गर्स से मिलने का अनुभव और आनंद दोनों ही शब्दों में बयान नहीं कर सकता हूँ... रायपुर में पहले मिल चुके पाबला जी, ललित जी, संजीव जी, अवधिया जी से दोबारा मिल कर कैसा लगा बता नहीं सकता... बोलूँगा अच्छा लगा तो कहोगे सब यही कहते है... और कहूँगा बुरा लगा तो सब नाराज हो जायेंगे...

चाय अच्छी नहीं थी इसका शिकायत है अविनाश जी आपसे... पर भोजन का स्वाद अभी तक याद है...

पर शिकायत है और रहेगी... दुनिया भर में ३०००० हिंदी ब्लोग्गर्स, भारत में लगभग २०००० तो होंगे ही... और अपनी दिल्ली में १००० तो जरूर होंगे... फिर भी संख्या ३०० भी नहीं... हिंदी और हिन्दुस्तान का शायद कुछ नहीं हो सकता... पर मुझे किसी की कोई परवाह नहीं... मैं अकेला काफी हूँ...

बहुत ज्यादा नहीं लिखूंगा... रात गहरा रही है और मुझे भूख भी सता रही है... अंत में अविनाश जी को दिल से धन्यवाद, पुस्तक के लिए बधाई... फिर मिलने की दुआ के साथ विदा...

2 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

अच्‍छी रपट।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘ हिंदी और हिन्दुस्तान का शायद कुछ नहीं हो सकता... पर मुझे किसी की कोई परवाह नहीं... मैं अकेला काफी हूँ... ’

चलिए, मैं भी साथ हो लेता हूं, एक और सिफ़र मिल कर दस तो हो जाएंगे ना :)