श्रीगंगानगर—“मेरी नेल पालिश कहाँ है? मेरा मेकअप का सामान दो। रज़ाई का एक गिलाफ भी कम है। सूट........... ।“ ये शब्द एक विवाहिता के हैं। जो “ससुराल” मे अपनी माँ के साथ अपना सामान वापिस लेने आई है। क्योंकि कुछ सप्ताह बाद ही पति से उसक अलगाव हो गया । आज पंचायत ने दोनों पक्षों को उनका सोना,नकदी,सामान का निपटारा किया था। लेकिन लड़की उक्त वस्तुओं के लिए अड़ गई। चिंतन की बात है कि जहां तू दुल्हन बन कर आई। वहाँ तू दुल्हन रह ही नहीं सकी या वो रख नहीं सके। तो नेल पालिश …….. मिले ना मिले क्या हो जाएगा।
लड़का –लड़की के परिवारों ने ठाठ से शादी की। पाँच छह महीने मे ही दोनों ऊब गए। पंचायत बैठी। दोनों को अलग अलग कर दिया। तलाक होने तक सामान की ज़िम्मेदारी पंचायती के हवाले कर दी। बच्चे ऐसे हो गए जैसे शादी हुई ही नहीं । चेहरे से मुस्कुराहट जाती रही।
शादी को अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि दुल्हन ने पति की कमाई पर हक जताना शुरू कर दिया। एक ही डिमांड , वेतन उसके हाथ मे आना चाहिए। क्योंकि उसके माता पिता मोबाइल पर हर रोज उसको यही “शिक्षा” देते हैं। रिश्ते वह नहीं रहे जैस होने चाहिए।
वकीलों से मिलो। पंचायती लोगों से बात करो। ऐसे कितने ही सच्चे किस्से घर घर की कहानी बने हुए है। कोई जल्दी निपट जाता है,कोई लटकते रहते हैं। स्थिति दिनो दिन विकट हो रही है। किसी का घर खुल गया। किसी ने इज्जत की खातिर ढ़क रखा है। लेकिन कब तक। लड़के वाले अधिक मुश्किल मे है। क्योंकि थाना,कोर्ट सब लड़की वालों के साथ है। कानून ही ऐसा है। लड़की ने कुछ कर लिया तो टंग गए लड़के वाले तो। बेचारे डरते ही रहते हैं।
शादी से पहले, लड़का-लड़की के परिवार एक दूसरे के बारे मे सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ पता करते,करवाते हैं। तब दोनों मे कोई कमी नहीं दिखती। आदर्श परिवार संबंधी बन जाते हैं। नव विवाहित जोड़े मे विचारों की भिन्नता होते ही सब गुड गोबर। जो आदर्श परिवार थे वही एक दूसरे के लिए समाज मे सबसे घटिया हो जाते हैं। शुरू मे जोड़े को आपस मे एडजस्ट होने मे कुछ समय लगता है। तब किसी ना किसी ना किसी बात पर, या बे बात पर खटपट, झिकझिक,बोलचाल,रिश्तों मे खिंचाव हो जाता है। उस समय लड़का,लड़की के परिवार वाले बड़प्पन दिखाएँ तो कुछ दिनो मे ही सब ठीक हो सकता है। ऐसा ना हो कि लड़की की माँ घंटो बात करे मोबाइल पर अपनी बेटी से। जिस घर मे लड़की माँ,मौसी,दीदी,बहनोई का दखल हुआ समझो रिश्तों की गर्माहट कम होना तय है। ननद ने अधिक हाथ पैर मारे तो भी समझो ठीक नहीं। आज केवल एक एसएमएस—ज़िंदगी की उलझने शरारतों को कम कर देती है, लोग समझते हैं कि हम बहुत बदल गए हैं।
1 comment:
सच कहा आपने। बहुत अच्छा आलेख।
मार्कण्ड दवे।
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