किसका विकास...भारत का या इंडिया का
ठंड को इतने करीब से कभी महसूस नहीं किया था...औऱ वो भी जन्मदिन के दिन...अपने घर नैनीताल जाने कि लिए दिल्ली से देहरादून पहुंचा तो मालूम चला कि काठगोदाम जाने वाली ट्रेन तो चार घंटा लेट है। जनवरी की सर्दी औऱ उस पर इंद्र देव की मेहरबानी...दोनों की जुगलबंदी ने देहरादून कि फिजाओं में बर्फ सी ठंडक घोल दी। घर जाना जरूरी था इसलिए अगले दिन जाने का फैसला मैं नहीं ले पाया। स्टेशन पर ही ट्रेन का इंतजार करने की ठानी...बैठने की जगह तलाशी तो वेटिंग रूम से लेकर प्लेटफार्म की कुर्सियों पर मुसाफिर कब्जा जमा चुके थे। ऐसे में कुछ देर प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए कभी चाय की चुस्कियों के सहारे तो कभी गरीबों के काजू मूंगफली खाकर समय काटने का प्रयास किया। लेकिन कहते हैं ना कि इंतजार से बुरी कोई चीज ही नहीं वो भी ट्रेन का इंतजार भगवान ही बचाए...लेकिन मरता क्या न करता मजबूरी थी। टहलते टहलते नजर प्लेटफॉर्म पर खाली हुई कुर्सी पर पडी तो तपाक से जाकर बैठ गया। ठंड से पहले भी सामना हुआ था...लेकिन इस तरह ठंड का सामना पहली बार हो रहा था। एक कंबल साथ में था तो उसे ओढकर बैठ गया...मेरे पास तो कम से कम ठंड से बचने के ले कंबल था उनी कपडे पहने हुए थे। लेकिन जनवरी की इस सर्द रात में हो रही बरसात के बीच प्लेटफार्म में मैंने कुछ ऐसे लोग भी देखे...ज्यादातर मजदूर किस्म के थे...जो सिर्फ एक पतली सी चादर में...औऱ कुछ तो सिर्फ फटी हुई स्वेटर में सिकुड कर सोने की कोशिश कर रहे थे...लेकिन मसूरी से आ रही बर्फीली हवाएं उन्हें कहां सोने देती...पहली बार तब मुझे एहसास हुआ कि हांड कंपाने वाली सर्दी क्या होती है...जिस सर्दी में हम लोग घरों में रजाईयों के अंदर दुबके होते हैं...ब्लोअर चलाकर आराम की नींद ले रहे होते हैं...ऐसे में फुटपाथ में सोने वाले गरीबों के लिए सर्द रात का एक एक पल गुजरना कितना भारी होता है। ऐसा नहीं है कि ये हाल सिर्फ किसी एक जगह का है...ये आपने भी शायद कई बार महसूस किया होगा...अपनी आंखों से देखा होगा...मेरे लिए भी ये चीज कोई नयी नहीं थी...लेकिन मुझे इसका असल एहसास तब हुआ जब सर्द रात का सामना मुझे करना पडा। हांड कंपाने वाली सर्दी में मेरे चार घंटे तो किसी तरह कट गये...लेकिन जिनके पास पहनने के लिए गर्म कपडे औऱ ओढने के लिए कंबल नहीं है...कैसे उनके लिए रात का हर एक पल रहता होगा...ये मुझे लगातार कचोटता रहा। एक औऱ सवाल इसके साथ ही परेशान करता रहा कि किस झूठी शान में हम लोग जिए जा रहे हैं...एक तरफ तो हम तरक्की की बात कर रहे हैं...वहीं दूसरी तरफ हमारे देश के 40 करोड से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं...जिनके ना खाने का पता है ना रहने का...जीवन स्तर तो दूर की बात है। सरकार भले ही देश में गरीबों के पर्सेंट में कमी होने का दावा कर रही हो...लेकिन गरीबों की संख्या कम होनी की बजाए बढी है। इसकी एक वजह यह भी है कि गांवों से लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं...जिससे शहरी आबादी बढी तो है...लेकिन लोगों की आय नहीं बढी...औऱ इनमें लाखों ऐसे परिवार हैं जिन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं होती...औऱ ऐसे ही लोग रोज कमा कर खाते हैं...औऱ इसी तरह हांड कंपाने वाली सर्दी हो या झुलसा देने वाली गर्मी फुटपाथ या रेलवे स्टेशन पर इसी तरह अपनी जिंदगी गुजार देते हैं। हम भले ही कितनी तरक्की कर लें...विकासशील से विकसित देश हो जाएं...दुनिया हमारा लोहा माने...लेकिन उसकी असली खुशी तभी है...जब पंक्ति के आखिर में खडे लोगों का भी विकास हों...औऱ इस तरक्की का फायदा उनको मिले...वर्ना ये सब बेमानी है। उम्मीद करते हैं कि तरक्की भारत की हो हर भारतवासी की हो न कि इंडिया औऱ उसमें रहने वाले इंडियन की।
दीपक तिवारी
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