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28.1.13

राजनाथ- क्या धुलेगा 2009 का दाग ?


2005 में जब राजनाथ सिंह ने भाजपा की कमान संभाली थी तो भाजपा विपक्ष में थी। आम चुनाव में चार साल का वक्त था और राजनाथ सिंह के कंधे पर भाजपा को 2009 में वापस सत्ता में लाने की जिम्मेदारी थी। राजनाथ सिंह को भी पूरा भरोसा था कि वे 2009 में केन्द्र में एनडीए की सरकार बनाने में सफल होंगे लेकिन जब 2009 में चुनाव नतीजे आए तो भाजपा का सत्ता में आना तो दूर उल्टा भाजपा की सीटों की संख्या 2004 के मुकाबले कम हो गई।
2004 में जहां भाजपा ने 138 सीटों जीती थी वहीं 2009 में भाजपा की सीटों संख्या 116 रह गई यानि सत्ता में आने का ख्वाब देख रही भाजपा को 22 सीटों का बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे में एक बार फिर से राजनाथ सिंह के हाथ भाजपा की कमान है तो सवाल ये उठता है कि क्या राजनाथ सिंह 2005 से 2009 तक भाजपा अध्यक्ष रहने के दौरान उन पर 2009 के आम चुनाव में असफलता का जो दाग लगा है उसको 2014 में धो पाने में कामयाब होंगे..? वो भी जब उन्होंने पार्टी की कमान ऐसे वक्त पर संभाली है जब 2014 के आम चुनाव में तकरीबन 15 महीने का ही वक्त है और पार्टी  के सामने चुनाव जीतने से बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि आखिर एनडीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा..?
राजनाथ सिंह भले ही पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद 2014 में एनडीए की सरकार बनने का दम भर रहे हों लेकिन राजनाथ के इस दावे की हवा 2009 के आम चुनाव में उनके नेतृत्व में ही भाजपा की करारी हार का जिक्र आते ही निकल जाती है..!
राजनाथ सिंह संघ के भरोसेमंद होने के साथ ही सबको साथ लेकर चलने वाले नेता हो सकते हैं लेकिन उनकी इस योग्यता पर 2009 का आम चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन सवाल खड़ा कर देता है..!
राजनाथ के इस कार्यकाल में उनके लिहाज से अच्छी बात ये है कि उनकी दुश्मन नंबर एक यूपीए सरकार पहले से ही अपने फैसलों को लेकर विवादों के साथ ही उनके मंत्रियों के बयानों को लेकर सवालों में भी है..!
यूपीए-2 सरकार के भ्रष्टाचार, घोटाले राजनाथ सिंह की राह आसान कर देते हैं तो सरकार के खिलाफ अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के आंदोलनों से बदली देश की फिजा भी राजनाथ के लिए संजीवनी साबित हो सकती है। लेकिन राजनाथ सिर्फ इन सब के भरोसा 2014 में पार्टी की नैया पार नहीं लगा सकते इसके लिए राजनाथ को पिछली गलतियों से भी सबक लेना होगा कि आखिर 2009 में ऐसी क्या चूक वे कर गए कि भाजपा को फायदा होने की बजाए 22 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा।    
राजनाथ सिंह को पार्टी के नेताओं को भरोसे में लेने के साथ ही एनडीए में भाजपा के सहयोगियों को भी साथ लेकर चलना होगा फिर चाहे वो सहयोगियों के लिए सीटें छोड़ने की बात हो या फिर नेतृत्व को लेकर उठने वाले सवाल। क्योंकि भाजपा अगर अपनी सीटों की संख्या 200 से ऊपर नहीं ले जा पाती है तो फिर ये सहयोगी ही होंगे जो केन्द्र की सत्ता के रास्ते या तो आसान कर सकते हैं या फिर राह में रोड़े अटका सकते हैं। हालांकि इस काम में वे माहिर माने जाते हैं लेकिन सरकार बनने की स्थिति में पीएम की कुर्सी को लेकर एनडीए में अंतर्कलह को थामना उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी।
इसके साथ ही राजनाथ सिंह पर अपने फायदे के लिए पार्टी हितों को बलि चढ़ाने के साथ ही जातिगत पक्षपात के भी आरोप लगते रहे हैं ऐसे में राजनाथ सिंह को पार्टी अध्यक्ष के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में इस सब से दूर रहते हुए भी खुद को साबित करना होगा।   
समय कम हैं लेकिन चुनौती बड़ी...देखते हैं राजनाथ सिंह इससे पार पा पाएंगे या नहीं..!

deepaktiwari555@gmail.com

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