एक राज्य...12 साल
में 8 सरकारें और 8
मुख्यमंत्री...10 बार सत्ता परिवर्तन...2 बार राष्ट्रपति शासन और एक बार फिर से
कुर्सी की लड़ाई में वही सब...शायद यही अब झारखंड की नियति बन गई है। एक बार फिर
से नेताओं की कुर्सी की लालसा राज्य के लोगों के सपनों पर भारी पड़ गई और कुर्सी न
मिली तो झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अर्जुन मुंडा सरकार से समर्थन वापस ले लिया। दरअसल
जेएमएम की दलील है कि उसने राज्य की भाजपा सरकार को इस शर्त पर समर्थन दिया था कि
5 साल के कार्यकाल में 28 महीने भाजपा का मुख्यमंत्री रहेगा और 28 महीने जेएमएम का
लेकिन भाजपा ने 28 माह पूरे होने के बाद सीएम की कुर्सी खाली करने से इंकार कर
दिया जबकि भाजपा का जेएमएम के साथ ऐसे किसी समझौते से इंकार कर रही है। जो भी हो
ये वाक्या ये बताने के लिए काफी है कि झारखंड के नेता सिर्फ “राज”नीति पर ही विश्वास
करते हैं उन्हें राज्य से राज्य की जनता के सरोकारों से कोई सरोकार नहीं है। झारखंड
में नेता सिर्फ कुर्सी के लिए चुनाव लड़ते हैं और चुनाव जीतने के
बाद कुर्सी के लिए मारामारी का खेल झारखंड में राज्य गठन के बाद से ही चल रहा है। ये
झारखंड का दुर्भाग्य ही है कि राज्य गठन के बाद से कोई सरकार अपना पांच साल का
कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। अलग राज्य गठन के बाद जिस झारखंड का सपना वहां के
लोगों ने देखा था वो 12 साल बाद भी साकार नहीं हो पाया। सपना था झारखंड को विकास के
पथ पर ले जाने का...झारखंड में बेरोजगारी को दूर करने का...सपना था आदिवासियों के
विकास का...सपना था अपने संसाधनों के बल पर झारखंड को समृद्ध राज्य बनाने का लेकिन
झारखंड के कथित भाग्य विधाताओं ने अपनी सृमद्धि की कहानी तो लिखी लेकिन जिस राज्य
की जनता के बल पर वे यहां तक पहुंचे उन्हें वे कुर्सी के नशे में भूल गए। झारखंड
में या कहें देश में मधु कोड़ा से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है जो निर्दलीय
विधायक होने के बाद सीएम की कुर्सी तक पहुंचा लेकिन कुर्सी मिलने के बाद मधु कोड़ा
ने झारखंड के इतिहास में ऐसा काला अध्याय जोड़ा जिसने आम जनता के रहे सहे भरोसे को
भी तोड़ दिया। मधु कोड़ा ने जनता के उस भरोसे का भी खून किया जो राष्ट्रीय और
क्षेत्रिय दलों से निराश होने के बाद जनता अपने बीच के किसी शख्स पर कर सकती थी। झारखंड
में राजनीतिक अस्थिरता के लिए देखा जाए तो कई कारक जिम्मेदार हैं। अलग राज्य बनने
के बाद भी प्रदेश की जनता ने न तो पूरी तरह से राष्ट्रीय दलों का ही हाथ थामा और न
ही क्षेत्रीय दलों का दामन। नतीजा ये हुआ कि अपनी अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा
करने के लिए एक – दूसरे की नाव पर सवार राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी इसका भरपूर
फायदा उठाया। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता के बाद एक बार फिर से झारखंड उसी मुहाने
पर खड़ा है...जिसने 12 सालों में झारखंड को विकास के पथ पर ले जाने की बजाए कई कदम
पीछे धकेल दिया। राज्य में फिर से चुनाव होते हैं तो जनता के पास एक बार फिर से
मौका होगा अपने नए निजाम को चुनने का...अपने भाग्य विधाताओं को चुनने का...झारखंड
के भाग्य विधाता को चुनने का..! ऐसे में झारखंड की जनता को अबकी बार ये तय करना होगा कि क्या वे फिर से झारखंड में
12 सालों के इतिहास को दोहराते हुए देखना चाहेंगे..? या फिर चाहेंगे कि झारखंड को ऐसे हाथों
में सौंपे जो सिर्फ कुर्सी की रेस में नहीं झारखंड को विकास की रेस में आगे लेकर
जाने का सपना देखता हो। उम्मीद करते हैं कि जिस मकसद के लिए एक अलग राज्य का गठन
12 साल पहले हुए था उस मकसद के लिए झारखंड की जनता अबकी बार सुरक्षित हाथों में
झारखंड का भविष्य सौंपेगी लेकिन ये उम्मीद उस वक्त धुंधली पड़ जाती है जब आभास
होता है कि जनता का पाला तो हर बार की तरह फिर से ऐसे ही नेताओं की जमात से पलने
वाला है जिनका सपना सिर्फ कुर्सी तक ही सीमित है।
deepaktiwari555@gmail.com
No comments:
Post a Comment