राजकुमार साहू
जांजगीर, छत्तीसगढ़
देखिए हाल ही में मकर संक्रांति मनी और पतंगबाजी भी खूब हुई, लेकिन देष में महंगाई की पतंगबाजी ᅤंचाई पर ही है। महंगाई, गरीबों की जिंदगी की पतंगें काट रही है और उसकी डोर है हमारे ‘मौन-मोहन’ के पास, जो हर बार कोई निर्णय लेने के पहले पड़ोसी से पूछते हैं, ठीक है। महंगाई से आज जितनी डर नहीं लगती, उतनी सरकार से लगने लगी है, क्योंकि महंगाई का चाबुक तो उन्हीं के पास है। ठीक है, कहने वाले हमारे कर्णधार, क्यों महंगाई को ‘ठीक’ नहीं कर पाते। मैंने तो लोगों को कहते सुना है, डायन है महंगाई, लेकिन अंतःमन में झांकने से समझ में आता है कि महंगाई तो बेचारी है, जिस पर दाग लगा है, जबकि दाग लगाने वाले तो कोई और है। महंगाई भी डायन कहने पर घड़ियाली आंसू बहाती है, उसे तो सरकार के साथ मिलकर जनता के सीने में मूंग दलने में ही मजा आता है।
जब पतंगबाजी की बात चली है तो मकर संक्रांति में मैंने पतंग की डोर थामने का मन बनाया। मैं बड़े उत्साह से छत पर गया, वहां आसमान में देखा तो कई पतंगें हवा में हिलोरें मार रही थीं। मैंने जो पतंग आकाष में उड़ाने का मन बनाया था, वह तो आकाष में लहराते अनेक पतंगों के सामने बौनी लगने लगी। कुछ समय तक मैं आसमान में निहारते रहा। इसी बीच मैंने देखा कि एक पतंग महंगाई की थी। पतंग ने जिस विषाल क्षेत्र को घेर रखा था, उसमें मेरी पतंग की कोई बिसात न थी। मैं खुद को कोसने लगा कि महंगाई पतंग के सामने, हम तो टूटपूंझिए बनकर रह गए। मैंने सोचा, चलो कहीं और टᆰाई करते हैं।
आसमान की दूसरी ओर निगाह डाली तो वहां उससे बड़ी पतंग नजर आई, वह थी ‘भ्रश्टाचार’ की। भ्रश्टाचार की पतंग की खासियत देख तो मैं सन्न ही रह गया, क्योंकि इसमें इतनी गहराई दिखी कि वह कितनों को अपने में समा ले। ऐसी पतंगबाजी कर कइयों ने काली कमाई से अपनी डूबी लुटिया संभाल ली। कुछ लोग भ्रश्टाचार की पतंगबाजी में महारथी होते हैं, तभी तो वे कभी हारते नहीं है और हर बार पहले से ही जीत, उनके हाथ होती है। प्रषिक्षित पतंगबाजी का ही जादू है कि तिहाड़ में पहुंचकर भी भ्रश्टाचारी बाजीगरी करामात कम नहीं होती। तिहाड़ के चक्कर के बाद तो भ्रश्टाचार पतंगबाजी ऐसी होती कि कोई माई का लाल, डोर काटने की हिम्मत जुटा नहीं पाता। इतना ही नहीं, काले चेहरे की पतंगबाजी भी जमकर होती है। काले चेहरे में सफेदपोष का ऐसा लेप लगा लो, उसके बाद काली पतंगबाजी में मषगूल हो जाओ, कोई पहचान कर बता दे। कौन है, जो काली कमाई के सहारे ᅤंचे नाम बनाने वाले का बाल बांका भी कर ले। काली पतंगबाजी की तस्वीर इतनी सफेद होती है कि कहीं से भी दाग नजर नहीं आती। जो बता दे, फिर उसकी खैर नहीं।
कई दौर की पतंगबाजी आसमान में देखने के बाद मुझे लगा कि मैं तो मकर संक्रांति के पवित्र पर्व पर परंपरा निभाने के मूड में था, लेकिन आसमान में जिस तरह पतंगबाजी की काली छाया नजर आई, उसके बाद मेरे मन से पतंगबाजी का षुरूर ही खत्म हो गया है। इस साल तो पतंग की डोर खींचने की ख्वाहिष ही खत्म हो गई है, क्योंकि डोर की पकड़ को भी महंगाई की मार पड़ी है, वहीं यह भी डर सताने लगा है कि कहीं मेरी पतंग, कोई भ्रश्टाचारी पतंग की भेंट न चढ़ जाए। इसलिए इस साल मैंने ठान ली कि ऐसी पतंगबाजी की भीड़ में षामिल नहीं होᅤंगा। अगले साल, जब मकर संक्रांति आएगी, तब देखूंगा कि अब, हालात सुधरे कि नहीं ?
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