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15.1.13

सिसकती आंखों का दर्द और नजरिया

सिसकती आंखों का दर्द और नजरिया
राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
दिल्ली की घटना ने जिस तरह पूरे देश को हिलाकर रख दिया, उससे कहीं दर्दनाक वाकया छत्तीसगढ़ के कांकेर में घटित हुआ है। झलियामारी गांव के आश्रम में छात्राओं से दुष्कर्म के मामले उजागर हुए, उसके बाद निश्चित ही सरकार, गहन विचार के लिए मजबूर हो गई है कि आखिर व्यवस्था में कहां खामियां रह गई हैं ? छग के आश्रम शालाओं के साथ ही कन्या छात्रावासों की बदहाली व समस्या की बातें सामान्य ही मानी जाती रही है, लेकिन जो घटना सामने आई है, वह सरकार के साथ, समाज की भी नींद खोलने के लिए काफी है। शिक्षित व विकासपरक का चोला ओढ़े समाज में जिस तरह की मानसिकता व्याप्त है, उसकी परिणति है कि इस तरह की घिनौनी करतूत घटित हो रही है। ऐसे में इस मसले में विचार कर समस्या को खत्म करने की कोशिश के बजाय, जैसी राजनीति हो रही है और बयानों की बयार चल रही है, उससे जरूर उन सिसकती आंखों का दर्द बढ़ना स्वाभाविक है। राजनीति ऐसी होनी चाहिए, जिससे किसी का भला हो, न कि किसी के जख्म को नासूर बनाने का काम हो। जब किसी का नजरिया ही खराब हो, वहां व्यक्ति की सोच में बदलाव की जरूरत होती है, तब कहीं जाकर समाज को सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए संस्कारित शिक्षा का अहम योगदान हो सकता है, क्योंकि शिक्षा का मानव जीवन पर सकारात्क प्रभाव दिखता भी है।
देश में चहुंओर एक ही मुद्दे पर चर्चा हो रही है। यह जरूरी भी है, क्योंकि जब समाज गलत दिशा में जाता हुआ दिखता है तो उसके निदान के लिए मंथन भी आवश्यक माना जाता है। दिल्ली में गैंगरेप की घटना के बाद अवाम ने एक ही आवाज बुलंद की और कानून में बदलाव पर जोर दिया। निश्चित ही यह आवश्यक है, किन्तु उससे पहले समाज में व्याप्त ओछेपन की मानसिकता को दूर करनी होगी। पुरूष व नारी को लेकर मन में बनी संकीर्णता की खाई को पाटनी होगी। शिक्षा व विकास के बढ़ते आयाम ने काफी हद तक इस अंतर को घटाया है, लेकिन आज भी हालात पूरी तरह बदले नहीं हैं। इसी का परिणाम है कि ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब यह सुनाई न पड़े कि ‘अनाचार’ की घटना नहीं हुई है। नारी पूजा व नारी शक्ति की बात कहते, समाज नहीं थकता। साथ ही समाज में रहने वालों की जननी ‘नारी’ ही होती है, लेकिन जब घृणित करतूत सामने आती है, उसके बाद नारीत्व भावना की सोच तार-तार हो जाती है।
नारी उत्थान की जब बात हो रही है, उसमें सबसे पहले नजरिया में बदलाव की जरूरत है। जब नजरिया बदलेगा, उसके बाद कहीं न कहीं, नारी की छवि, देवी के रूप में नजर आएगी। शास्त्रों में भी नारी की महत्ता का बखान है, लेकिन आज जो स्थिति नारियों की प्रस्थिति के साथ बन रही है, उसे एक शिक्षित व सभ्य समाज के लिए हितकर नहीं माना जा सकता। किसी परिवार या समाज के विकास में नारी का हर तरह से योगदान होता है, यदि वही दबी-कुचली रहेगी तो फिर जैसा प्रगतिशील समाज की संकल्पना की जाती है, वह साकार हो पाएगा, बड़ा सवाल है ?
अनाचारियों के खिलाफ देश भर के लोगों ने सड़क पर शक्ति दिखाई है, कुछ ऐसी शक्ति, हमें उन विकृतियों को दूर करने लगानी होगी, जो समाज के अंदर व्याप्त है। जो भी व्यक्ति ऐसे घृणित कृत्य को करता है, वह भी समाज का ही हिस्सा होता है। ऐसी स्थिति में सशक्त समाज के निर्माण के लिए यह भी चिंतन का विषय है कि आखिर हम और हमारा समाज, किस दिशा में जा रहे हैं ? एक युग था, जब मातृशक्ति की पूजा होती थी, लेकिन अब उन्हीं मातृशक्ति के प्रतिरूप को कुचला जा रहा है। इस अन्याय के खिलाफ लड़ाई जारी है, इसे आगे भी जारी रखना होगा। सरकार को भी सख्त कदम उठाने होंगे, तब कहीं जाकर प्रगतिशील समाज की मंशा साकार रूप ले सकेगी।

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