-एच.एल.दुसाध -
इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान बिहार बिधानसभा चुनाव के तीसरे चरण का मतदान जारी है.यूं तो पहले चरण का मतदान शुरू होने के पूर्व तक विकास का मुद्दा शीर्ष पर था. पर आरक्षण पर संघ प्रमुख मोहन भागवत को बयान को जिस तरह लालू-नीतीश ने लपका, उसके बाद चुनाव पूरी तरह जाति बनाम धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण पर केन्द्रित हो गया,जो तीसरे चरण का चुनाव प्रचार थमते-थमते तुंग पर पहुँच गया है. इस चुनावी जंग में हिन्दू –ध्रुवीकरण पर अतिशय निर्भर रहने के कारण तीसरे चरण का प्रचार थमने के पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने प्रतिपक्ष पर आरोप लगा दिया है कि वह हिन्दुओं का आरक्षण चुराकर मुसलमानों को ५ प्रतिशत आरक्षण देना चाहता है, जिसे वे जान की बाजी लगा कर रोकने का प्रयास करेंगे. किन्तु एक तरफ जहां राजग धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण के लिए सर्वशक्ति लगा रहा है,वहीँ दूसरी ओर वह अपने समर्थक मीडिया के जरिये चुनाव को विकास बनाम जातिवाद के रूप में प्रचारित करने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ रहा है.ऐसा संभव है कि हिन्दू-ध्रुवीकरण के साथ विकास का गगनभेदी शोर निरीह बहुजनों को राजग के पाले में कर दे.ऐसे में बिहार विधानसभा में मोदीवादी विकास के सम्मोहन से निरीह बहुजनों को बचाना सामाजिक न्यायवादियों का अत्याज्य कर्तव्य बन जाता है.
काबिलेगौर है कि विकास हाल के वर्षों का एक नया फिनॉमिना है.मंडल उत्तर-काल में ‘जाति चेतना के राजनीतिकरण’ के उत्तरोतर प्रभावी होने के साथ, ज्यों-ज्यों शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाया विशेषाधिकारयुक्त वर्ग राजनीतिक रूप से लाचार होने लगा,उसके बुद्धिजीवी वर्ग ने इससे उबरने के लिए तरह-तरह के उपक्रम चलाया.इसके तहत उसने सात क्लास पास प्रगतिविरोधी एक निरीह ट्रक ड्राइवर को गाँधी और जेपी; सामाजिक बदलाव की लड़ाई में पलीता लगानेवाले एनजीओ वालों को नए ज़माने का हीरो तथा सामाजिक विविधतारहित महिला आरक्षण को एक बड़ा मुद्दा बनाया.लेकिन सबसे बड़ा उपक्रम उन्होंने ‘विकास’ को चुनावी मुद्दा बनाकर चलाया.इस मुद्दे ने जहां एक ओर नरेंद्र मोदी,चंद्रबाबू नायडू,नवीन पट्टनायक,शिवराज सिंह चौहान जैसों को भूमंडलीकरण के दौर का महानायक वहीँ दूसरी और लालू-मुलायम,माया-पासवान जैसे सामाजिक न्यायवादियों को खलनायक बना दिया. इस बीच ’विकास के गुजरात मॉडल’ शोर ने नरेंद्र मोदी को एक ऐसा सुपर हीरो बना दिया है जिससे चमत्कृत होकर लोग उन्हें बेहद ताकतवर प्रधानमंत्री बना दिए. हालांकि पीएम बनने के साल भर के अन्दर मोदी के विकास की पोल खुल गयी ,पर पूरी तरह से नहीं. इसलिए विकास पुरुष के रूप में उनकी बची –खुची साख को भुनाने के लिए राजग ने बिहार विधानसभा चुनाव को विकास बनाम जातिवाद का रूप देने का प्रयास किया .इस कार्य में उसे सवर्णवादी मीडिया का भरपूर सहयोग मिल रहा है.बहरहाल बिहार बिधानसभा चुनाव में जिस मोदीवादी विकास अर्थात गुजरात मॉडल का जोर-शोर से प्रचार चल रहा है, उसमें क्या भारतीय लोकतंत्र और बिहार के बहुसंख्यकों की बेहतरी के कुछ तत्व हैं?इसे ठीक ढंग से समझने के लिए भूमंडलीकरण के दौर के विकास की दशा और दिशा पर आलोकपात कर लेना जरुरी है.
बहरहाल पैसे लेकर विकास से लोगों को चमत्कृत करनेवाली हमारी मीडिया यह नहीं बतलाती कि कोई कोशिश करे या न करे समाज में परिवर्तन की धारा बहती ही रहती है.किन्तु परिवर्तन जब उच्चतर से निम्नतर अवस्था में पड़े लोगों के जीवन में सुखद बदलाव लाने में सक्षम होता है वही परिवर्तन विकास के रूप में विशेषित होता है.अर्थात हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में प्रविष्ट करानेवाला परिवर्तन ही सच्चा विकास कहलाता है.आज मीडिया जिस विकास को हवा दे रही उस विकास का मतलब बिजली, सड़क और पानी की स्थिति में सुधार से है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ध्यान में रखकर डिजायन किया जा रहा है एवं जिसका लाभ मुख्यतः देश के उस सुविधासंपन्न व विशेषाधिकार तबके को मिल रहा है,जिसका शक्ति के स्रोतों पर लगभग एकाधिकार है.इस विकास का लाभ दलित -पिछड़े और अल्पसंख्यकों को नहीं मिल रहा है,क्योंकि इस विकास में बहुजनों को भागीदार बनाने की कोई कार्ययोजना ही नहीं है .वंचितों के जीवन में बदलाव लाने में इस विकास की व्यर्थता को देखते हुए ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कई बार अर्थशास्त्रियों से रचनात्मक सोच की अपील करनी पड़ी थी .ऐसे विकास के खोखलेपन को देखते हुए ही ब्रिटिशराज के दौरान डॉ.आंबेडकर को 1930 में यह बात जोर गले से कहनी पड़ी थी-
‘सज्जनों,आप ब्रिटिश नौकरशाही की प्रशस्ति मात्र इसलिए जारी नहीं रख सकते क्योंकि उन्होंने सड़कों और नहरों को सुधारा,रेलवे बनाई,तुलनात्मक दृष्टि से स्थिर शासन दिया,भूगोल के नए आदर्श दिए अथवा आतंरिक झगड़ों और गृहयुद्धों को समाप्त किया. कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए भी उनकी प्रशंसा करने के पर्याप्त आधार हैं.लेकिन कोई भी आदमी, जिनमें दलित भी शामिल हैं ,खाली कानून व्यवस्था खाकर जिन्दा नहीं रह रह सकता.खाने के लिए रोटी चाहिए...मैं इस बात से सबसे पहले सहमत हूँ कि यदि ब्रिटिश लोगों की प्रशस्ति से थोड़ा ध्यान हटाकर ,उस सत्य पर जाया जाय जिसके अंतर्गत इस देश में पूंजीपति और जमींदार गरीब लोगों द्वारा किये गए उत्पाद को बलपूर्वक हड़प रहे थे.समझ में आनेवाली बात यह है कि ब्रिटिश लोग पूंजीपतियों तथा जमींदारों द्वारा किये जा रहे शोषण से मुक्ति दिलाने का काम क्यों नहीं करते?
इसको थोड़े सीमित परिप्रेक्ष्य में सोचा जाना चाहिए.ब्रिटिश लोगों के आगमन से पहले अस्पृश्यता के कारण दलितों की स्थिति दयनीय थी.क्या ब्रिटिश लोगों ने अस्पृश्यता को हटाने के लिए कुछ किया?ब्रिटिश लोगों के आने के पहले अस्पृश्य गांव के कुओं से पानी नहीं भर सकते थे?क्या ब्रिटिश सरकार ने इस अधिकार को दिलाने का कोई प्रयास किया?ब्रिटिश लोगों के आने के पहले उनका मंदिरों में प्रवेश वर्जित था.क्या आज भी कोई वहां जा सकता है?ब्रिटिश लोगों के आने से पहले दलित पुलिस व सरकारी सेवाओं में भर्ती नहीं हो सकते थे.क्या ब्रितानी सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास किया ? इन प्रश्नों का कोई भी सकारात्मक उत्तर उपलब्ध नहीं है.जो लोग इस देश पर इतने समय तक शासन किये,वे इस देश के अछूतों के लिए कुछ अच्छा कर सकते थे,लेकिन निश्चित रूप से परिस्थितियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ...’
ब्रिटशराज में अचंभित करनेवाले विकास पर आठ दशक पूर्व डॉ.आंबेडकर ने दलित दृष्टिकोण से जो सवाल उठाये थे आज के भूमंडलीकरण के दौर में हो रहे तेज विकास पर भी वैसे ही सवाल खड़े होते हैं.डॉ.अम्बेडकर ने शक्ति के स्रोतों में दलित जो तरह-तरह के बहिष्कार झेल रहे थे,उसमें प्रत्याशित सुधार न कर पाने के लिए ही तब ब्रितानी सरकार की,कानून व्यवस्था और दूसरे मोर्चों पर सुशासन देने के बावजूद, तीव्र आलोचना किया था.आज के तेज विकास का दौर शुरू होने पूर्व भी दलित कुछ किस्म की सरकारी नौकरियों को छोड़कर दूसरी आर्थिक गतिविधियों-सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों ,पार्किंग,परिवहन से बहिष्कृत रहे.क्या विकास पुरुषों ने यह बहिष्कार दूर किया?यह दौर शुरू होने के पूर्व भी फ़िल्म-टीवी-मीडिया,पौरोहित्य और दूसरे सांस्कृतिक स्रोतों में उनकी कोई भागीदारी नहीं रही.क्या इन्होंने दिलाया?इन क्षेत्रों में पिछडों की भी स्थिति दलितों से बहुत बेहतर नहीं रही.इस दौर के शुरू होने के बहुत पहले ही वह आधार तैयार था जिसके कारण हम महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पिछड़े राष्ट्र से भी पिछड़े होने के लिए अभिशप्त हुए तथा सच्चर रिपोर्ट में राष्ट्र को सकते में डाल देनेवाली मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर उभरी.
अब अगर भूमंडलीकरण दौर में उभरे तमाम विकास पुरुषों के कार्यों का आकलन किया जाय तो साफ नज़र आयेगा कि ये दलित-पिछडों-अल्पसंख्यकों और महिलाओं की स्थित में मूलभूत बदलाव लाने में पूरी तरह विफल रहे, जिसका थोड़ा भी अपवाद सुशासन और गुजरात मॉडल के विकास का डंका पिटवानेवाले मोदी नहीं बन पाए.बहुजनों की कसौटी पर उनको परखने पर उन पर करुणा प्रदर्शित करने से भिन्न कुछ किया ही नहीं जा सकता.पर,चूंकि बहुजनों के विपरीत विकास का मोदी ब्रांड शक्तिसंपन्न –वर्ग के लिए माकूल है इसलिए हमारा बुद्धिजीवी वर्ग और सवर्णवादी मीडिया उनकी प्रशंसा में पंचमुख है.बहरहाल अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव सिर्फ दो चरण के मतदान बाकी रह गए हैं, मोदी के कथित सुशासन और विकास के गुजरात मॉडल को बहु-प्रचारित करने के लिए तरह –तरह के हथकंडे अपनाये सकते हैं.ऐसे में सामाजिक न्यायवादी बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे बहुजन वोटरों को ब्रितानी सरकार के विकास और सुशासन पर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा 1930 में की गई टिपण्णी से अवगत कराने के लिए विशेष उपक्रम चलावें.
21.11.15
मोदीवादी विकास से सावधान
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