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22.6.20

जन्मदिवस (21 जून) विशेष : विष्णु प्रभाकर - कालजयी 'आवारा मसीहा' के मसीहा लेखक

अमरीक

भारतीय और हिंदी साहित्य में 'आवारा मसीहा' को विलक्षण एवं ऐतिहासिक मुकाम हासिल है। यह सर्वप्रिय महान उपन्यासकार शरतचन्द्र चटर्जी की संपूर्ण प्रामाणिक जीवनी है और इसे महान हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने गहन जमीनी शोध के बाद लिखा था। विष्णु जी का 1931 से सन 2009 तक फैला साहित्य संसार बेहद विपुल है। इस सशक्त कलम ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृतांत की 100 से ज्यादा पुस्तकें दी हैं।

उनकी सबसे ज्यादा चर्चित कृति 'आवारा मसीहा' है। इसने शरत बाबू को तो अमर किया ही, खुद विष्णु प्रभाकर को भी अमरत्व प्रदान किया। आज भी बहुतेरे पाठक पहले 'आवारा मसीहा' पढ़ते हैं और फिर शरतचन्द्र के उपन्यास। यह हिंदी की कालजयी रचना है, जिसके लगभग आए साल विभिन्न भाषाओं में छपने वाले संस्करण दो सैकड़ा छूने को हैं। विष्णु प्रभाकर की 14 बरसों की कड़ी मेहनत के बाद यह पुस्तक सामने आई। इसे लिखने के लिए उन्होंने सुदूर उन देशों की यात्राएं कीं, जहां शरत गए या रहे थे। शरत के हजारों पत्रों और भेंटवार्ताओं से वह गुजरे। उनका अक्षर-अक्षर बार-बार पढ़ा।

कहना अतिशयोक्ति नहीं कि किसी जीवन चरित्र को लिखने के लिए इतना श्रम बेमिसाल है और अन्यत्र ऐसा कोई दूसरा उदाहरण विश्व साहित्य इतिहास में नहीं मिलता। शरतचन्द्र बांग्ला लेखक थे लेकिन उनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें अपनी भाषा में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी तथा गुजराती, मलयालम, मराठी, तेलुगु और उर्दू सहित अन्य भाषाओं में भी मिली। अपने दौर की वह सबसे बड़े और मकबूल लेखक थे लेकिन हैरानी की बात है कि एकाध को छोड़कर उनकी कोई प्रमाणिक जीवनी 'आवारा मसीहा' से पहले उपलब्ध नहीं थी। 'आवारा मसीहा' का अनुवाद बेशुमार भाषाओं में हुआ है। बांग्ला अनुवाद बांग्लाभाषी मानक के तौर पर पढ़ते हैं। शरतचन्द्र चटर्जी के पाठकों-प्रशंसकों के लिए 'आवारा मसीहा' एक पुस्तक नहीं बल्कि ग्रंथ है! गोया कोई 'पवित्र ग्रंथ।'

इस जीवनी के 1999 के संस्करण की भूमिका में विष्णु प्रभाकर ने लिखा है, "आवारा मसीहा नाम को लेकर काफी ऊहापोह मची। वे-वे अर्थ किए गए जिनकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो इस नाम के माध्यम से यही बताना चाहता था कि कैसे एक आवारा लड़का अंत में पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है। आवारा और मसीहा दो शब्द हैं। दोनों में एक ही अंतर है। आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है।" इसी भूमिका में उन्होंने जोर देकर कहा है कि इस जीवनी की एक भी पंक्ति कल्पना पर आधारित नहीं है। जितनी जानकारी पाई उतना लिखा। 'आवारा मसीहा' का अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिंधी, तेलुगु, गुजराती और रुसी अनुवाद भी खासा मकबूल है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में जिन भारतीय साहित्यिक कृतियों को सबसे ज्यादा पढ़ा और सराहा जाता है, उनमें यह प्रमुख है।    

शरतचन्द्र चटर्जी के संपूर्ण कथा साहित्य में स्त्री-पात्रों की अहम भूमिका (एं) हैं। विष्णु जी के अधिकांश रचनात्मक लेखन में भी स्त्री-मर्म की विविध छवियां मिलेंगीं। उनके अति महत्वपूर्ण और बहुचर्चित उपन्यास (इसी पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था) 'अर्धनारीश्वर' में स्त्री-पात्र नए जीवट में हैं। उनका कथा लेखन यथार्थ, सपनों और आदर्शीकृत स्थितियों का एक सम्मिलन-सा है। बहुुधा उनकी रचनाओं का मूल आधार 'परिवार' हैं जिसमें प्राय: सभी आयु वर्ग और लिंग के सदस्य मिलतेे हैं। घर-आंगन और पड़ोस के खाके पाठकों को स्पर्श करते हैं। बच्चों के लिए भी उन्होंने नायाब लेखन किया।     

विष्णु प्रभाकर पर गांधीवाद छांह की मानिंद रहा। उनके जीवन और साहित्य में गांधी रचे-बसे रहे। महज आठ साल की आयु में उन्होंने खद्दर पहनना शुरू किया था और ताउम्र सिर से पैर तक हर मौसम में उनका यह लिबास रहा। यानी
नौ दशक तक उन्होंने मुतवातर खद्दर पहना। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दौर में उन्होंने सरकारी नौकरी की तो एक सुपरिंटेंडेंट स्मिथ के वह निजी सहायक थे। एकबारगी तत्कालीन अंग्रेज गृहमंत्री से मिलने अपने बॉस के साथ गए। मोटा कुर्ता और मोटी धोती पहनी हुई थी। उनके दोस्त ने गृहमंत्री से यह कह कर उनका परिचय कराया कि, 'यह गांधी के भक्त हैं।' महात्मा गांधी और कस्तूरबा से वह कई बार मिले थे। जवाहरलाल नेहरु, मीरा बेन, प्यारेलाल और महादेव भाई से भी। उन्होंने कई बार रेखांकित किया कि गांधी और गांधीवाद को समझना इतना आसान नहीं है। महात्मा गांधी समय मिलने पर विष्णु प्रभाकर की रचनाएं पढ़ते थे और बाकायदा प्रतिक्रिया भी देते थे।   

विष्णु जी ने जीवनपर्यंत अपने आदर्श-उसूल नहीं छोड़े। बेशक एवज में कई बार नुकसान साहा। अपने घर को (जिसे धोखे से हड़प लिया गया) कब्जामुक्त करवाने के लिए उन्होंने कष्टकारी लंबा संघर्ष किया। वह पहली बार 1924 में दिल्ली आए थे। 1940 में दिल्ली का देश भर में चर्चित कॉफी हाउस उनकी आदत बन गया। इस कॉफी हाउस में साहित्य, कला और सियासत से वाबस्ता कई पीढ़ियों ने उनकी संगत की है। जिस भी मेज पर वह बैठते थे, उसे विष्णु प्रभाकर की टेबल कहा जाता था। जितना भी हो, सबका बिल वह खुद अदा करते थे। अपने निवास स्थान पुरानी दिल्ली से कनॉट प्लेस स्थित हर शाम पैदल कॉफी हाउस आना उनका रोजमर्रा का नियम था। एक दफा वह रविंद्रनाथ टैगोर को पुरानी दिल्ली के कुंडेवलान ले गए। सरोजिनी नायडू भी साथ थीं। वहां गुरुदेव ने तीन कविताएं सुनाईं।  

सामंतवाद, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता के घोर विरोधी विष्णु प्रभाकर कभी पंजाब में भगत सिंह और उनकी नौजवान सभा से भी जुड़े रहे थे। इसी सिलसिले में उन्हें पुलिस प्रताड़ना भी सहनी पड़ी।     

'आवारा मसीहा' के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और पाब्लो नेरुदा सम्मान से सम्मानित किया गया। कई अन्य सम्मान उन्हें इस कृति के लिए मिले। वह भारतीय ज्ञानपीठ से मूर्तिदेवी पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली से शलाका सम्मान और अखिल भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजे गए। 21 जून 1912 को मीरापुर (जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश) में उनका जन्म हुआ और जिस्मानी अंत 11 अप्रैल 2009 को।

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