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7.6.20

सही पत्रकारों की संख्या अंगुली पर गिनने लायक ही रह गई है


पत्रकारिता दिवस हाल में ही बीता है। ये दिवस दरअसल पत्रकारों के आत्ममंथन का भी दिन होता है। हमें यह  समझना होगा कि जिस तरह से अंग्रेजी शासनकाल में हमें आजादी को अविसंभावी बनाने के लिए कलम को तलवार की मानिन्द धार देनी पड़ी थी आज उससे भी दो कदम आगे बढकर जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है। रिस्क भी तब के सापेक्ष अब चार गुणा ज्यादा है।

तब हमारे चारो तरफ गुलामी काल था पर आज भ्रष्टाचार, पापाचार, व्यभिचार व हत्याचार से हमें लडना है। तब हमारे पास ईमानदारी व एकता की ताकत थी। पर वर्तमानकाल में हम निहत्थे व एकांकी हैं। ज्यादातर इस प्रोफेशन में या तो शार्टकट कामयाबी को आये हैं या फिर अपने गुनाहों को पत्रकारिता की चादर से ढापने के लिए।

हैरत ये है कि मक़सद सभी का गैरकानूनी कृत्यों को उजागर करने का है पर बहुत ज्यादा विषैले गठजोड़ का हिस्सा बन बैठे हैं । नतीजतन आज पत्रकारिता दिवस पर मुझे ये कहते हुए जरा भी गुरेज नहीं कि अब सही मायने के पत्रकारों की संख्या अंगुली पर गिनने लायक ही रह गई है।

इसका एक कारण न्यूज चैनल व अखबारों में लालायी संस्कृति हो सकता है पर ये सिर्फ आरोप मात्र ही है। ईमानदारी के ह्रास व सत्तासुख से गठजोड़ के कारण मीडिया की दशा व दिशा दोनों बदल गई हैं। इस प्रोफेशन में चंद सिरफिरे मंगल पांडेय टाइप ही बचे हैं जो सबकुछ ह्रोम कर विपरीत ताकतों से लोहा ले रहे हैं।

पर इससे भी ज्यादा खतरनाक स्थिति तब हो जाती है जब भ्रष्टाचार के खुलासों पर वे लोग ही कलम की दुहाई देकर कथित अपने आका व्यभिचारियों को बचाने के लिए नतमस्तक हो जाते है जो की पत्रकारिता की आड लिए खूंखार भेडियों से कम नहीं। क्योंकि उनकी नियति तो बस भ्रष्टाचारी रूपी आदमखोरी का छोड़ा गया मांस भक्षण की है।

अजय यादव एडवोकेट

(लेखक दैनिक अन्त तक समाचार पत्र के सम्पादक हैं। )

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