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7.6.20

वर्ण व्यवस्था का पिरामिड उल्टा करने के बाद और कमजोर हो गया लोकतंत्र

वर्ण व्यवस्था के लिए लोकतंत्र स्वीकार्य नहीं है क्योंकि व्यवस्था में सभी को भागीदारी और हरेक के प्राकृतिक अधिकारों की गारंटी यह अवधारणाऐं औपनिवेशिक सिद्धांत पर आधारित इस व्यवस्था को सुहाती नहीें है। गरज यह है कि वर्ण व्यवस्था संपत्ति, शिक्षा और पदो ंके मामले में जन्म आधारित ईश्वरीय विधान पर विश्वास करती है जिसे इस नश्वर भूलोक के किसी शास्त्र द्वारा चुनौती दिया जाना उसे सहन नहीं है।

क्या ईश्वरीय का शिकार हो गया सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह
बाबा साहब ने इसी कारण कहा था कि देश में राजनैतिक लोकतंत्र को सफल करने के लिए पहले सामाजिक लोकतंत्र को कायम करने की जरूरत है। बाबा साहब अम्बेडकर की तरह ही पश्चिमी लोकतंत्र के उदारवादी और मानवीय सिद्धातों से बहुत प्रभावित डा राममनोहर लोहिया का भी विश्वास कुछ इसी तरह का था। इसलिए दोनों ने रणनीतियां गढ़ी जिससे वर्ण व्यवस्था के पिरामिड को उल्टा किया जा सके। दोनों का विश्वास था कि ऐसा होने पर वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय विधान होने का मिथक टूटेगा। अपने लिए फायदेमंद न देखकर सवर्ण वर्ण व्यवस्था से किनारा काटने को तैयार हो जायेंगे। दूसरी ओर वंचितों को वर्ण व्यवस्था से मोह नहीं होना चाहिए इसलिए वे इसे अपनी बारी पर सहारा देने की कोई जरूरत नहीं समझेंगे।
लेकिन राजनीति और समाजशास्त्र के सूत्र ऋजुरेखीय नहीं होते। शतरंज के घोड़े की ढाईघर चाल की तरह इनकी दिशायें अटपटी रहती हैं।

सार्वभौम नेता बनना चाहते थे बाबा साहब
डा लोहिया चाहते थे कि उनकी पार्टी में सवर्ण पद प्राप्त करने की आकाक्षा छोड़कर सदियों से हाशियें पर पड़ी जातियों के नेतृत्व में काम करने की मानसिकता बनायें। डा लोहिया ने बाबा साहब अम्बेडकर के लिए भी लिखा कि उनकी तिक्तता उन्हें एकांगी दिशा में मोड़ देती है। काश वे अपने को सार्वभौम बनाने का प्रयास करें लेकिन शायद डा लोहिया का उनको लेकर यह आंकलन सही नहीं था। बाबा साहब ने लेबर पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के नाम से दल बनाकर सार्वभौम दृष्टिकोण के अनुरूप कार्य करने की अपनी मानसिकता को उजागर किया था। एक बार उन्होंने जाति के नाम से पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन बनायी थी लेकिन यह उनका स्वैच्छिक फैसला नहीं था। क्रिप्स मिशन ने बातचीत के लिए विभिन्न समूहों और दलों को आमंत्रित करने की जो शर्ते रखी थी उसे पूरा करने के लिए मजबूरी में इस नाम से बाबा साहब को पार्टी बनानी पड़ी थी जिसे बाद में उन्होंने बदल दिया था।
तथापि बाबा साहब चाहते थे कि संकीर्णता छोड़कर गरीबों और शोषितों के उत्थान के लिए वे कुछ कर सकें। उन्होंने वायसराय की सलाहकार परिषद में रहते हुए मजदूरों के कल्याण के लिए जो विधान तैयार कराये वह इसके नमूने हैं। आजादी के बाद हिन्दू स़्ित्रयों के अधिकारों के लिए उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा। इस तरह बाबा साहब का स्वयं का दृष्टिकोण तो सार्वभौम था लेकिन भारतीय समाज सार्वभौम दृष्टिकोण को कैसे आत्मसात करे यह उन्हें एक बड़ी चुनौती के रूप में दिखायी देता था।

डा लोहिया ने भी बाद में पहचाना बाबा साहब का दर्द
बाबा साहब के इस दर्द को पहचानने के बाद डा लोहिया ने दूसरे आम चुनाव के समय उनके साथ मोर्चा बनाने की कोशिश की जिसमें नेतृत्व शायद बाबा साहब की ही होता। डा लोहिया इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थेे कि नेतृत्व के लिए सबसे निचले पायदान के लोगों को सबसे पहले अवसर देकर ही सामाजिक लोकतंत्र को जल्द संभव बनाया जा सकता है।

बिडम्बना यह है कि चाहे डा अम्बेडकर रहे हो या डा लोहिया सामाजिक लोकतंत्र को लाने की उनकी रणनीतियां जब परवान चढ़ी तो उनके अनुमान और मान्यताओं के अनुरूप राजनीतिक लोकतंत्र के लिए कुछ भी फलीभूत नहीं हुआ। उनके द्वारा प्रवर्तित सामाजिक लोकतंत्र के जो नतीजे सामने आये वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए बहुत अनिष्टकारी साबित हुए।

लोहिया के मानस पुत्रों का पक्षद्रोह
1977 में जब पहली बार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ उस समय डा लोहिया इस दुनिया में नहीं रह गये थे। उनके मानस पुत्रों ने जो भूमिका अदा की वह उनके विचारों के सर्वथा विरूद्ध थी। प्रधानमंत्री पद के लिए योग्यता, क्षमता हर दृष्टि से बाबू जगजीवन राम की दावेदारी सबसे मजबूत थी लेकिन वे दलित होने के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनने दिये गये। इस तरह सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को नेतृत्व में सबसे पहले अवसर देने का डा लोहिया का संकल्प पहली बार मौका मिलते ही कुचलने में उनके अनुयायियों ने कोई हिचक नहीं दिखायी।

इसी मौके पर यह जाहिर हो गया था कि भले ही पिछड़े भी हाशिये पर रहे हो लेकिन उन्हें वर्ण व्यवस्था से गुरेज नहीं है बल्कि सामाजिक लोकतंत्र के लिए काम करके वे दलितों को अपने सिर चढ़ाने के विरूद्ध हैं। जनता पार्टी के शासन में अनुसूचित जातियों के विरूद्ध हिंसा की अनेक घटनायें हुई जिनमें यह प्रवृत्ति झलकी। जनता दल के समय यह अंर्तविरोध और प्रखरता से सामने आये। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह का नाम मुख्यमंत्री के बतौर तय किये जाने के बाद पार्टी के नेतृत्व ने प्रस्ताव किया था कि अब बिहार में किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाया जाये पर देवीलाल, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव किसी को यह मंजूर नहीं हुआ। लोहिया का वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष परवर्ती नेताओं ने व्यर्थ सिद्ध कर दिया। इतना ही नहीं उनके अनुयायियों ने जाति गर्व का नारा देकर वर्ण व्यवस्था को नई बल वृद्धि देने का कार्य किया।

बाबा साहब की लाइन से परे चली गई बसपा
दूसरी ओर डा अम्बेडकर की मानस संतानों ने भी सामाजिक लोकतंत्र की उनकी परिकल्पना को नावदान में बहा डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्ण व्यवस्था का पिरामिड उल्टा होने पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चार बार दलित नेतृत्व को सत्ता में आने का अवसर मिला लेकिन उसने वर्ण व्यवस्था को मिटाने की बजाय उसे संजीवनी देने में भूमिका अदा की। डा अम्बेडकर ने रणनीति तैयार की थी कि अनुसूचित जाति के सभी लोगों को बौद्ध बनाकर उन्हें नई धार्मिक पहचान के बतौर संगठित किया जाये ताकि वे वर्ण व्यवस्था के दायरे से बाहर आकर आपसी बंटवारे से मुक्ति पा सकें पर कांशीराम और मायावती को उनके इस रास्ते पर चलना गवारा नहीं हुआ। इतना ही नहीं मायावती ने जातिगत भाईचारा समितियों के गठन के माध्यम से समाज में जातिगत बंटवारे की लकीरें और गहरी कर डाली।

वर्ण व्यवस्था पर आघातों से लोकतंत्र के लिए उपजी विष बेलें
बाबा साहब अम्बेडकर और डा लोहिया मूल रूप से देश के राजनीतिक लोकतंत्र को दुनिया में सबसे बुलंदी पर पहुंचाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि समाज की उपनिवेशवादी संरचना को समाप्त किये बिना इसमें उन्हें सफलता नहीं मिलेगी। लेकिन वर्ण व्यवस्था पर उनके आघातों से लोकतंत्र का कोई भला होने की बजाय भारी नुकसान हुआ। चाहे मुलायम हो, लालू हो या मायावती इनमें से किसी ने अगर सामाजिक लोकतंत्र में दिलचस्पी नहीं ली तो राजनीतिक लोकतंत्र में भी कोई निष्ठा नहीं दिखायी। संस्थाओं को कमजोर करने, दमनशाही, पार्टियों को प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी बनाने, भ्रष्टाचार और फासिस्ट रवैये में ये अपने सत्ता के समय इतने आगे निकल गये थे कि आज भी इस मामले में उनका मुकाबला नहीं हो पा रहा है।

अभी से चार कदम आगे रहा है सामाजिक क्रांति की कोख से जन्मा फासिस्ट शासन
यह मुद्दे इसलिए विचारणीय हैं कि आज देश में बड़े प्रबुद्ध वर्ग को लोकतंत्र खतरे में नजर आ रहा है। इसकी वजह अप्रत्यक्ष रूप से शासन चला रहे संघ परिवार की वर्ण व्यवस्थावादी विचारधारा नजर आती है लेकिन हाल के इतिहास के पन्ने जब हम पलटते हैं तो प्रतीत होता है कि इस व्यवस्था में तो स्थायित्व के कुछ गुण भी हैं लेकिन इसे तोड़कर सारे सरंजाम को अस्त व्यस्त करने के अलावा कुछ भी नहीं पाया नहीं जा सका था तो क्या पहले शुरूआत गलत थी। राजनीतिक लोकतंत्र को मजबूत और समृद्ध करने का प्रयास पहले होना चाहिए जिसके बाद सामाजिक लोकतंत्र से जुड़ी गुत्थिया अपने आप और बेहतर तरीकों से हल होती चली जायेगी। जनता दल के समय इसकी झलक देखी गई थी। राजनीतिक सुधारों पर जोर देने वाले नेतृत्व ने स्वतःस्फूर्त ढंग से मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के साथ-साथ बाबा साहब अम्बेडकर को भारत रत्न देने की प्रतीकात्मक कार्यवाही करके सामाजिक लोकतंत्र के लिए भी रचनात्मक उत्साह पैदा किया था। उस समय मधुलिमय और जनेश्वर मिश्र जैसे तथाकथित लोहियावादी थिंक टैंकों ने गिरोहबंद मानसिकता का परिचय देने की बजाय बेहतर लोकतंत्र के लिए समर्थन दिया होता तो यह उनका अपने गुरू के प्रति सही तर्पण भी होता और इससे बाबा साहब व डा लोहिया का वैचारिक संघर्ष भी अपनी तार्किक परिणति पर पहुचं पाता। 


K.P.Singh 
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