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27.6.20

..और दुर्भाग्‍य देखिये कि ना तो पूरा सूखा पड़ा और ना ही बाढ़ आई!

बीते साल सूखा नहीं पड़ा था, और दुर्भाग्‍य से बाढ़ भी नहीं आई थी. यह बहुत ही विषम परिस्थिति थी. बड़े हाकिम लोग, जिन्‍हें आजादी के बाद आईएएस कहा जाने लगा था, तकलीफ में थे. इस साल उन्‍हें जनता की सेवा करने का मौका नहीं मिल पाया था, और जनता की सेवा किये बगैर कोई आईएएस रह जाये, यह वैसा ही पाप था जैसा सतयुग में रावण ने लघुशंका के चक्‍कर में शिवलिंग को चरवाहे को थमा देने का किया था. एक हाकिम ने अपने बच्‍चे को वादा किया था कि इस बरसात तुम्‍हें स्‍पोर्टस कार दिलायेंगे, और दुर्भाग्‍य देखिये कि ना तो पूरा सूखा पड़ा और ना ही बाढ़ आई. उनका पूरा ऑफिस अचानक आई इस आपदा से दुखी था. कई सपने गर्भ में ही कालकवलित हो गये थे. ये महाविनाशकारी साल था.


इस हृदय विदारक आपदा से केवल राहत विभाग वाले हाकिम और उनका ऑफिस ही दुखी नहीं था, बल्कि सूखा, बाढ़ में काम आने वाले सारे विभागों के लोग भी दुखी थे. बहुतेरों मेहनती और ईमानदार सरकारी कर्मचारियों ने बाढ़ और सूखे के सहारे ही यूरोप घूमने, जमीन लेकर मकान बनाने तक के छोटे-मोटे सपने पाल रखे थे, लेकिन भगवान ने उनके सपनों पर वज्रपात कर दिया था, और वो भी तब, जब वे हर रविवार की सुबह गाय को घास-रोटी खिलाते थे, शाम को चीटियों के बिलों में मीठा आटा डालते थे और हर मंगल-शनि को हनुमान मंदिर जाते थे. इन्‍हीं सत्‍कर्मों के चक्‍कर में पिछले दसियों सालों से एक बार भी यह लोग टाइम पर ऑफिस नहीं पहुंच पाये थे, उसके बाद भी भगवान ने इतनी कठोरता दिखाई थी. यह दिल तोड़ देने वाला हादसा था.


किसी भी मुश्किल हालात में हिम्‍मत ना हारने वाले हाकिम लोग कागजों पर भी बाढ़-सूखा लाने की क्षमता रखते थे, ठीक वैसे ही जैसे मेघनाथ अपने बाण से नागपाश लाने की. एक दौर में इनकी कलम में इतनी ताकतवर थी, कि खुद के अथक मेहनत से लाये गये सूखे-बाढ़ में पूरा ऑफिस हरा-भरा कर देते थे, लेकिन कहावत हैं ना कि हर समय ना होत एक समाना! इन पर भी ऐसा ही वज्र टूट पड़ा था. कागजों पर बाढ़-सूखा लाने की क्षमता में बीते तीन सालों में उसी तरह कमी आई, जैसे पाकिस्‍तान को कर्ज मिलने में आई है. सरकार के नये वाले मुखिया को ना तो लंदन में होटल वगैरह खरीदना है और ना ही जमीनपुर-बादलपुर-आसमानपुर में राजमहल तैयार करवाना है, इसलिये वो गाय-चींटी से भी कंट्रोल में नहीं आ पा रहे हैं और यह एक ऐतिहासिक घटना है, जो अर्थशास्‍त्र से सीधी जुड़ी हुई है और विज्ञान को मात दे रही है.



पर कहते हैं ना कि भगवान के घर अंधेर भले हो, लेकिन देर नहीं होता है! ऐसा ही हुआ, भगवान से गाय और चींटियों के पालनकर्ताओं की दुर्दशा देखी ना गई. इन मासूमों और उनके बीबी-बच्‍चों की प्रार्थना सुन ली, जो तमाम सपनों के असमय गर्भपात हो जाने से दुख के भारी सागर में गोते लगा रहे थे, और भगवान से सूखा-बाढ़ की उम्‍मीद कर रहे थे. भगवान ठहरे दयालू, उनसे यह दुख देखा ना गया. फटाक से उन्‍होंने पीड़ा से जूझ रहे हाकिमों की मदद के लिये कोरोना को भेजा और पिछले दस साल में सूखा-बाढ़ ना आने से हुए नुकसान की भरपाई एक साथ कर दी. अब नये-पुराने सारे हाकिम एक साथ मिलकर जनता की सेवा कर रहे हैं. जमीन पर बहुतेरे काम हो रहे हैं, लेकिन उससे ज्‍यादा हवा में और सबसे ज्‍यादा कागजों पर राहत काम शुरू हो चुके हैं.

कोरोना ने जो खुशियां हाकिमों के बीबी-बच्‍चों को दी है, उतनी खुशी तो अंग्रेजों को यह देश लूटने के वक्‍त भी नहीं मिली थी! हाकिम दिनरात जुटकर जनता की सेवा कर रहे हैं. ना तो दिन देख रहे हैं और ना ही रात देख रहे हैं, ठीक वैसे ही, जैसे आजादी के बाद के डकैत दिन-रात की परवाह किये बगैर किसी भी गांव में डकैती डाल दिया करते थे! जनता की सेवा में ये हाकिम इतने बिजी हैं कि इनके फोन नहीं उठते, स्‍वीच ऑफ रहते हैं, क्‍योंकि सेवा कोई आसान काम नहीं है! वैसे, लॉकडाउन के चलते मुझे ये जानकारी नहीं मिल पा रही है कि हाकिम लोग ठेकेदारों इत्‍यादि से सेवा शुल्‍क अपनी मां के एकाउंट में मंगवा रहे हैं, पेटीएम करवा रहे हैं या फिर नकद ही ले रहे हैं! मैं उन ऐतिहासिक अर्थशात्रियों लोगों को भी सलाम करता हूं जो गांव की चार बीघा जमीन बेचकर शहर में पचासों बीघा ले लेते हैं!

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अनिल सिंह
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