अहमदाबाद : माइनॉरिटी कोआर्डिनेशन कमिटी MCC गुजरात ने गुजरात गुंडा और असामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) विधेयक 2020 विधेयक क्रमांक 22 को रद्द करने के संबंध में महामहिम राज्यपाल महोदय गुजरात को विस्तार से पत्र लिखा है|
कंविनर मुजाहिद नफ़ीस ने कहा कि उक्त क़ानून राज्य में अधिकारों की आवाज़ को दबाने, राजनीतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल होगा| राज्य में लोगों का विश्वास और मज़बूत हो के लिए मानव अधिकारों का हनन रोकना राज्य का कर्तव्य है, इसके लिए सरकार प्रभावी क़दम उठाए न कि ईस्ट इंडिया कंपनी के राज को वापस लाने वाले क़ानून बनाकर राज्य में अधिकारों की आवाज़ को ख़त्म करना| हम महामहिम राज्यपाल महोदय से इस काले क़ानून को रद्द करने की अपील करते हैं|
संलग्न- महामहिम राज्यपाल महोदय को भेजा गया पत्र
सेवा में,
महामहिम राज्यपाल महोदय
राजभवन, गांधीनगर, गुजरात
विषय- गुजरात गुंडा और असामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) विधेयक 2020 विधेयक क्रमांक 22 को रद्द करने के संबंध में|
महोदय,
महोदय गुजरात सरकार ने ગુજરાત ગુંડા અને અસમાજિક પ્રવૃત્તિઓ (અટકાવવા બાબત) गुजरात गुंडा और असामाजिक प्रवत्ति (प्रतिषेध) विधेयक 2020 विधेयक क्रमांक 22, 2020 विधानसभा से पास किया है| ये क़ानून पूर्ण रूप से असंवैधानिक है, जिसके संबंध में हमारा प्रत्यावेदन निम्न है|
इस क़ानून की धारा 2 (ख) में गुंडा शब्द की परिभाषा इतनी असपष्ट है कि किसी भी व्यक्ति जो अपने या समाज के अधिकारों कि बात करेगा उसको पुलिस गुंडा घोषित कर देगी| धारा 2 (ग) में असामाजिक प्रवत्ति की परिभाषा भी राज्य में मानवअधिकारों, पर्यावरणीय अधिकार, श्रम अधिकार तथा अन्य कोई भी अधिकारों की बात करने वाले लोगो को भी इस क़ानून के तहत गुंडा घोषित किया जा सकेगा| धारा 2 (ग) 8, 9 के तहत भी किसी भी व्यक्ति को गुंडा घोषित करना सरल हो जाता है| धारा 2 (ग) 10 के तहत कंपनी मालिकों को को अपने कर्मचारियों को गुंडा साबित करना बाएँ हाथ का खेल हो जाएगा जबकि अगर कंपनी श्रम क़ानून, न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा, मानवअधिकारों का हनन करे तो उसके ऊपर कोई कार्यवाही होगी का कोई उल्लेख नहीं है| धारा 2 (ग) 16 के तहत भी कोई भी धरना प्रदर्शन करने वाले को गुंडा घोषित किया जा सकेगा| वहीं 2 (घ) के तहत राज्य सेवक भी मदद करने पर दोषी होंगे, वहीं धारा 23 के अनुसार राज्य सरकार व उनके कोई अधिकारी के विरूद्ध केस नहीं चलेगा, यानि सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को फँसाने के आदेश देगी अगर पुलिस इंस्पेक्टर ने उनके गलत आदेश को नहीं माना तो उनको गुंडे की मदद के इल्ज़ाम में जेल होगी व गलत आदेश देने वाले पर कोई केस नहीं होगा| वहीं इस क़ानून ने कहीं भी गलत तरीक़े से फंसाए गए लोगों को रक्षण और ज़िम्मेदार अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही का नियम नहीं है|
धारा 3 में दंड को बताते हुए 3(1) में 7 से 10 साल की क़ैद व 50 हजार जुर्माना वहीं 3(3) में 6 महीने की क़ैद व 10 हज़ार जुर्माना, महोदय एक ही क़ानून के उल्लंघन में दो तरह के दंड, दिखाता है कि जिसको सरकार चाहेगी उसे 6 महीने व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को 7 साल क़ैद होगी|
धारा 4 (ख) कोई तीसरे व्यक्ति जिसका संबंध कथित गुंडे से है की संपत्ति को जप्त करने का अधिकार देता है, वहीं तीसरे व्यक्ति की संपत्ति को तब तक नहीं छोड़ा जाएगा जब तक वो संतोष कारक जवाब नहीं दे सके और जब तक कोई आदेश उसके पक्ष में ना हो, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति से राजनीतिक या व्यक्तिगत मनमुटाव हो को कथित गुंडे से संबंध दिखा कर उसकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाएगी, ये इतना असपष्ट धारा है कि जिसको सरकार चाहेगी उसको कोर्ट केस में उलझा देगी| धारा 4 (ग) के अनुसार कोई आरोपी जिसने अपहरण का आरोप है को कोर्ट मान लेगी कि इसने फ़िरौती के लिए अपहरण किया है, ये बात इतनी हास्यास्पद है कि माननीय न्यायालय को सूबूत का परीक्षण करने के बजाय मानने को बाध्य किया जा रहा है ये धारा कोर्ट को Document on Record का परीक्षण करने से रोकती है और इससे निर्दोषों के फँसने की संभावना बढ़ती है| धारा 4 (च) गवाहों का परीक्षण आरोपी की गैर मौजूदगी में करने की बात करता है, जबकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत आरोपी के समक्ष कोर्ट की कार्यवाही चलती है जिसमे गवाहों का परीक्षण भी होता है, इस क़ानून में उक्त प्रकार का का नियम का आशय दुर्भावना है|
धारा 11 (1) इस क़ानून के तहत कोर्ट की कार्यवाही गुप्त रखने का प्रावधान करता है, धारा 11 (2) गवाहों की पहचान गुप्त रखने, धारा 11 (3-क) कोर्ट रेकॉर्ड से गवाहों के नाम और पता का उल्लेख न करने, धारा 11 (3-ख) गवाहों की पहचान गुप्त रखने के आदेश करने व धारा 11 (4) आदेश का उल्लंघन करने पर 1 साल की क़ैद व 5 हज़ार का जुर्माना का प्रावधान करता है, महोदय उपरोक्त धारा 11 के सभी उपबंध भारतीय दंड संहिता 1860, भारतीय फ़ौजदारी प्रक्रिया 1973, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के विरूद्ध हैं, ये धारा हमें ईस्ट इंडिया कंपनी के राज की याद दिलाता है जिसमे कंपनी सरकार जिसको चाहे बिना पारदर्शिता के जेल में रखने का सम्पूर्ण सत्ता देता है|
महोदय ये क़ानून गुजरात में पहले से मौजूद PASA एक्ट 1985 जैसा ही है, सरकार ने अपने उद्देश्य और कारणो में सरकार 1985 से 2020 तक राज्य में जुआ, ज़मीन हड़पना, अनैतिक व्यापार, नक़ली दवा, शराब का व्यापार को रोक नहीं पायी इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है उसके ऊपर क्या कार्यवाही की गयी नहीं बताया है|
महोदय देश में क़ानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पहले से ही भारतीय दंड संहिता 1860, भारतीय फ़ौजदारी प्रक्रिया 1973, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 व सैकड़ों क़ानून मौजूद हैं फिर इस क़ानून का औचित्य नहीं प्रतीत होता है| महोदय ये क़ानून न्याय के नैसर्गिक सिधान्त पारदर्शिता, किसी भी निर्दोष को सज़ा न देने के मूलभूत सिद्धांत का स्पष्ट उल्लंघन है| ये क़ानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 न्याय के समक्ष सभी की समानता का भी स्पष्ट उलंघन है| ये क़ानून अंतर्राष्ट्रीय मानवअधिकारों की घोषणा 1948 जिसको भारत ने भी हस्ताक्षर किया है का स्पष्ट उलंघन है|
महोदय ये क़ानून मूल रूप से राजनीतिक विरोध को ख़त्म करने के लिए, राज्य में मानवअधिकारों, प्रतिरोध की आवाज़ों को कुचलने के उद्देश्य से लाया जा रहा है| महोदय आप राज्य में संविधान रक्षण के प्रहरी व राज्य के अभिभावक है, आपसे सादर अनुरोध है की इस जनविरोधी कंपनी राज वापस लाने वाले क़ानून को रद्द करने के आदेश करें व राज्य में मानवअधिकारों का रक्षण सुनिश्चित करने के आदेश करें|
मुझे विश्वास है कि आप सभी क़ानूनों का परीक्षण करते हुए न्यायहित में हस्ताक्षर ना करते हुए इस काले क़ानून को रद्द करने के आदेश करेंगे|
ता- 1-10-20
भवदीय,
मुजाहिद नफ़ीस
कंविनर
9328416230
Email- mccgujarat@gmail.com
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