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6.2.09

यमुना किनारे विचरने के बहाने


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उमेश पंत
नदियां हमेशा उस जगह को एक संस्कृति देती हैं जहां वो बह रही होती हैं। नदियों के साथ एक पूरा जीवन और उस जीवन के बरक्स लोगों की दैनिक जीवनचर्या भी नदियों से जुड़ जाती है। चाहे वो बनारस या हरिद्वार के घाट हों या किसी छोटे से गांव के किनारे बह रही अनजान से नाम वाली नदी के किनारे, नदी होने से उनका होना कुछ अलग ही अहमियत से सराबोर हो जाता है। उन घाटों, उन किनारों में होने वाली चहल पहल की वजह वो नदी होती है और इस वजह के इर्द-गिर्द कई और वजहें जान बूझकर वहां के रवासियों और राहगीरों द्वारा बुन ली जाती हैं। ये वजहें उस नदी की अहमियत के सबूतों में शुमार हो जाती हैं। लेकिन कोई नदी तभी अच्छी लगती है जब वह अविरल बही चली जाये, उसकी सतहों के इर्द गिर्द स्वच्छ और निर्मल होने की महक महका करे, और वहां एक अजीब सी शान्ति, एक अजीब सा सुख आने जाने वालों को मिला करे। अब तक हमेशा यही लगता आया था कि न यमुना ऐसी नदियों में है, न दिल्ली यमुना के होने से मिले उपरोक्त सुखों से परिपूर्ण है। यानी यह कि यमुना का यहां दिल्ली में है तो पर दिल्ली से और दिल्ली वालों से अलहदा है। पूरी तरह उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी हुई। जैसे बनारस की विधवांएं। न यमुना ने दिल्ली को कोई संस्कुति ही दी है, न दिल्ली वालों ने यमुना के इर्द गिर्द खुद कोई संस्कुति बुनने की जरुरत ही समझी। परिणाम जो होना था वही हुआ। यमुना एक नाले में दब्दील होती रही। सूखती रही और दिल्लीवालों ने भी उसे किसी कूड़ेदान से बेहतर न समझा।
आईटीओ के पास यमुना का जो किनारा है वहां एक सूखे दिन में जाना हुआ तो पैर पर पहनी खुली काली चप्पलें मटमैली हुए बिना नहीं रह सकी और पैर मिटटी में पसीने के मिल जाने से काले हो गये। पर भीगे नहीं। नदी के किनारे जाने के बावजूद बिना भीगे- भिगाये पैरों का लौट आना बड़ी विडम्बना जरुर थी। पर वजह जाहिर थी कि इतने गंदे पानी में न पैर भिगाने का जी हुआ न ही माहौल में घुली बदबू ने ज्यादा देर वहां ठहरने ही दिया। वहां चहल पहल के नाम पर कुछ बच्चे मिले जो पास ही से गुजरती रोड में बहती हुई कारों में मौजूद आस्थावान लोगों की आस्था को उनके द्वारा दी गई मूर्तियों, घड़ों और चंद सिक्कों जैसी चीजों के रुप में इस नदी में उड़ेल आते हैं। बहाने से ये बच्चे इन चंद सिक्कों के हकदार बन जाते हैं। ये बच्चे स्कूल नही जाते और नदी के कूड़े को बीन अपने भविश्य के आईने से दूर चले जाते हैं। वैसे भी इस नदी में वो कुव्वत कहां है कि यह किसी को आईना दिखा भी सके। या कहें कि लोगों ने इस कुव्वत होने की कोई गंजाईश ही नही छोड़ी। वैसे और जगह होती तो नदी में अपना प्रतिबिम्ब देखना भी कम रोचक नहीं होता। पर यहां आकर इस रोचक अनुभव से गुजर पाना कतई असम्भव सा लगा।
अक्षरधाम के पास भी यमुना के कुछ अवशेश बांकी हैं। यहां यमुना का यह छोटा सा अहाता सुबह सुबह कालेज जाते हुए रोज दिखाई दे जाता है। इन दिनों रोलज इसे देखने की गरज से बस के दरवाजे पर खड़ा रहता हूं। सुबह जब धूप होती है तो सूरज की कई किरणें इसमें सितारों जैसा कुछ बिखेर रही होती हैं और कुछ पक्षी बार बार इस अहाते में उडत्ते-तैरते दिखाई देते हैं। इन पक्षियों के उड़ते वक्त नदी की सतह को ठीक छोड़ते समय, इनके शरीर से पानी को बिखरते हुए देखना मुझे एक अलग आनन्द देता है। दूसरी ओर अक्षरधाम की दिशा में जो छोर है वहां एक नर्सरी है। और इस नर्सरी के बीच में युमुना को बचाये जाने के लिए यमुना सत्याग्रह का बैनर लगा एक तम्बू न जाने कब से लगा हुआ है। सुना है मैग्सेसे अवार्डी राजेन्द्र जी यहीं से अपने आन्दोलन को प्रतीकात्मक रुप से चलाते हैं। लेकिन यह समझ से परे है इस जगह पर इस सत्याग्रह को कैसे कोई नोटिस ले पाता है। हांलाकि पास ही बन रहे खेलगांव की ईमारतों की मंजिलों को कम करने के पीछे इन लोगों के आन्दोलन की भूमिका जरुर रही है।
खैर यमुना खूबसूरत कतई नही रह गई है। मेरी इस धारणा को तोड़ने में पिछला हफता बड़ा अहम रहा है। पिछले शुक्रवार को कालिन्दी कुंज के पास बने पक्षी विहार में जाना हुआ। दरअसल अन्दर जाना भी एक संयोग था। मैं बाहर से ही नदी में मौजूद एक नाव की तस्वीर लेने पे तुला था कि तभी वहां एक गार्ड आया और मुझे टोका कि मैं क्या कर रहा हूं। हांलाकि यह अजीब सा दुराग्रह ही था कि एक कैमरा पकड़ा हुआ आदमी जो नदी में मौजूद नाव को फोकस कर ही चुका हो उससे पूछा जाय कि वह कर क्या रहा है। खैर उस गार्ड ने बताया कि मैं पहले 30 रुपये का टिकट खरीदूं और फिर अन्दर जाकर जीभर फोटोग्राफी करु। मैने टिकट खरीदा और अन्दर जाकर वह हुआ जो दिन बनने के लिए काफी था। वास्तव में यमुना अब भी निहायत खूबसूरत है। उतनी ही तिनी किसी निर्जन गांव के इर्द गिर्द बह रही नदी हो सकती है। लगभग चार किलोमीटर का इस अहाते को अगर आप बिना थके केवल यमुना को निहारते, वहां मौजूद पक्षियों से ईश्या करते हुए पैदल पार कर लें तो यह एक नितान्त दार्शनिक अनुभव से कम नही है। कम से कम मेरे लिये तो यह सच रहा।

इतनी सुन्दर यमुना और उसकी दार्शनिकता को जिन्दा रखना जितना जरुरी है उतना ही विडम्बनापूर्ण है उसे गन्दे नाले में तब्दील होते देखते रहना।

2 comments:

यशवंत सिंह yashwant singh said...

swagat hai umesh bhayi
pahli hi post me aapne dil ko chhu liya.

best wishes

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

jabardast bhaayi ji.....aapne to hila hi diya....ise hi sacchi badhaas kahate hain.....sach....!!