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19.2.09

मीडिया पर एक और तालिबानी हमला

उमेश पंत
http://naisoch.blogspot.com/

पाकिस्तान की स्वात घाटी में एक बार फिर पाकिस्तान की तालिबानी ब्रिगेड ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या की है। दरअसल यह हत्या उस पाकिस्तानी पत्रकार मूसा खान की हत्या ही नहीं है बल्कि यह मामला हमारी मौलिक स्वतंत्रता के अधिकार के हनन का मामला है। यह हत्या भले ही पाकिस्तान में हुई हो लेकिन ऐसा नहीं है कि किसी और देश के लिए इसकी कोई अहमियत नहीं रह जाती। यहां सवाल आतंकवाद के बुलन्द होते हौसलों का है। दरअसल तालिबान को पैदा करते वक्त अमेरिका ने शायद ही सोचा हो कि आने वाले समय में वह अमेरिका को न केवल आंख दिखाने लगेगा बल्कि इतना मजबूत हो जायेगा कि उसे हिला देने की क्षमता रखने लगेगा। लेकिन तालिबान अमेरिका की छत्रछाया में पैदा हुआ, पला बढ़ा और अब अमेरिका की ही गले़ की हडडी बन गया है। तो बात जाहिर है कि जो संगठन विश्वभर में सर्वशक्तिमान होने का दम भरने वाले अमेरिका को आतंकित कर सकता है उसके लिए भारत जैसे देश की कोई खास बिसात नही होगी। और यह बात वह हाल ही में मुम्बई में हुए आतंकी हमले में सिदध कर ही चुका है। पाकिस्तान में हुई मौजूदा घटना से आतंकवादी यही संकेत देना चाहते हैं कि खौफ फैलाने की उनकी मुहिम में उन्हें रोकने वाला कोई माई का लाल कहीं नहीं है। मीडिया पर होने वाला हर हमला दरअसल एक सांकेतिक हमला भी होता है जिसका उददेश्य जाहिराना तौर पर खौफ की संवेदनशीलता को सीधे तौर पर बढ़ा देना होता है। क्योंकि एक पत्रकार की हत्या को विश्व मीडिया में ज्यादा से ज्यादा कवरेज दिया जाना लाजमी है। यह बात ऐसे संगठन अच्छी तरह जानते हैं। इससे पहले भी पाकिस्तान में पत्रकारों की हत्याएं होती रही हैं। लेकिन यहां सवाल पाकिस्तान की इस घटना पर प्रतिक्रिया कास है कि वो इस मसले को कितनी गंभीरता से लेता है। हांलाकि यह वही पाकिस्तानी प्रसाशन है जो समय समय पर मीडिया को प्रतिबंधित कर देने में गुरेज नहीं रखता। जिसके साये में जनसंचार एक स्वायत्त संस्था न रहकर सरकारी गुलाम भर बनकर रह जाती है। ऐसे में देखने वाली बात यही होगी कि पाकिस्तानी पत्रकारों का जोे विरोध पत्रकार की हत्या की घटना को लेकर हो रहा है वह पाकिस्तानी सरकार के कान में जूं रेंगने के लिए काफी होगा या नहीं। अगर अभी कोई कड़ा कदम न लिया गया तो सम्भव है कि पत्रकारों की हत्या आतंकवादियों के बीच एक ट्रेंड बन जाये और व्यावसायिकता के दौर इस में स्वतंत्र और निडर पत्रकारिता विश्वभर में जितनी बची खुची भी रह गई है वह भी आतंक के साये में कही पूरी तरह खो जाये।

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