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4.3.08

लंगड़ा पत्रकार

बच्चे बड़े हो रहे हैं। उनकी वो बातें जो दिल छू जाती हैं, सारे दिन के गम भुला देती हैं, जीने की प्रेरणा देती हैं, बच्चों जैसा बनने को कहती हैं.....धीरे धीरे भूलती जा रही हैं। सोच रहा हूं, जब सारी भूल जाएंगी तो फिर तो माथा ही पीटना है, जो याद है आप लोगों से शेयर कर लेता हूं..

-सुपुत्र आयुष दादा ने जिद की कि उन्हें जिमेट्री बाक्स चाहिए। हालांकि उनके क्लास में इस बाक्स की जरूरत कतई नहीं पड़ती पर उन्हें जाने कहां से रट चढ़ गई कि मुझे जेमेट्री बाक्स चाहिए सो ले आया। जब घर आए तो खोला और आयुष दादा बोल पड़े....पापा, ये देखो, ये लंगड़ा पत्रकार है.....।

आयुष के हाथ में लंगड़ा प्रकार था, जिसे मैं आज भी लंगड़ा प्रकार बोलता हूं क्योंकि बचपन से यही बोलता, पढ़ता,सुनता आया हूं...और शायद ये मेरे देहातीपन का ही असर होगा कि लंगड़ा प्रकार को आयुष दादा लंगड़ा प्रकार की जगह बोलने में अपनी तोतले जुबान में लंगड़ा पत्रकार बोल गए। पर कितना सही बोला....हम सब तो लंगड़ा पत्रकार ही हैं ना, उस फिल्म के लंगड़ा त्यागी की तरह....।।।

-सिम्मी दीदी जब कुछ बरस पहले मेरठ में थीं तो एक दिन रानी मुखर्जी की फिल्म आ रही थी, एकदम से बोल पड़ी, पापा देखो...मुखा रानी जी की फिल्म आ रही है....। और हम सब लोग हंस पड़े। वो रानी मुखर्जी तो सुनती थी पर उसे जाने क्या कनसीव किया कि बोलने के वक्त बजाय रानी मुखर्जी बोलने के वो मुखा रानी जी बोल पड़ीं। यकीन मानिए, मैं आज भी रानी मुखर्जी को खुद मुखा रानी जी कह कर बुलाता हूं। बड़ा मजा आता है बच्चों जैसा बनकर जीने, बोलने और करने में...:)

-बच्चों का आजकल एक्जाम चल रहा है। कल आयुष दादा अपनी मम्मी के पास गए किचन में और बोल पड़े...मम्मी, मम्मी....मैंने नल कर लिया है....। बेटा पहली बार लर्न को हूबहू बोलना चाह रहा था क्योंकि सिम्मी दीदी यही बोलती थीं, जो उनकी टीचर सिखाती थीं, कि बेटा जाओ लर्न करो और सिम्मी दीदी घर पर कहती थीं कि पापा ये मैम ने लर्न करने को दिया था और देखो मैंने लर्न कर लिया। तो उनका सुन सुन के आयुष दादा का कपार कुफुता गया था और एकाएक बोल पड़े...मम्मी मम्मी देखो, मैंने नल कर लिया है। और मम्मी हैं कि बजाय तारीफ करने के पूरा जबड़ा खोल के हा हा हा हा करने लगीं और बाद में बोलीं ..बेटा नल नहीं लर्न....।


-इसी तरह आयुष गमला को गलमा, खिड़की को खिकड़ी बहुत दिनों तक बोला करते थे और वो जब तक बोलते रहे, हम लोग बच्चों को देखकर मुग्ध होते रहे। आज भी मुग्ध होते हैं, काश हम इन जैसे हो पाते।

जय भड़ास
यशवंत

3 comments:

Anonymous said...

DADA IN BACHCHON KI MASUMIYAT HAME SARAL AUR SAHAJ BANNE KI PRERNA DETI HAI.AGAR BACHCHON KI AISI KILKARIAN NA HO TO JIVAN BEMAJA AUR BOJHIL HO JATA HAI.
JAI BHADAS
JAI YASHVANT

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,आयुष और मानसी की बातें बता कर आपने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कैसे होते होंगे वो लोग जो अपने बच्चों को पैदा करके चले जाते हैं और उनका बचपन कोई नहीं देखता,न ही किसी को उसमें दिलचस्पी होती है । एकबार मैंने कड़्क्या से पूछा था कि क्या खाते हो कहां रहते हो तो उसने खुश होते हुए मुंबई वी.टी.रेलवे स्टेशन की ओर उंगली दिखा दी कि यहा रहता हूं और लोग ट्रेन में कितना अच्छा-अच्छा खाना छोड़ जाते हैं और वो खाना होता था पेन्ट्री कार की बची हुई जूठन । इन बच्चों का तुतलाना हकलाना कोई नहीं देखता क्या वो दुनिया बनाकर खामोश बैठ गया ईश्वर ,एकदम ही गैरजिम्मेदार है ये भगवान कहीं का....

Unknown said...

bhaiya smhalkr bachhon ki baton ka bhi koi bhai bura n man jae..g samhalkr...bada khrab jmana hai guru