पिछले चार साल का साझा तानाबाना टूट गया..करार ने आम आजमी के सरोकारों के सभी बंधन तोड़ डाले..देश की कुल आबादी के हितों की बली चढ़ा दी गई। और महज कुछ महिनों की सत्ता का सुख भोगने के लिए दिनरात जोड़तोड़ की कवायद जोरों पर है। इन सब के बीच हरदम हाशिये पर रहने वाला आम आदमी ये नहीं समझ पा रहा कि अमरीका ,जो हरदम भारत के ख़िलाफ पड़ोसी मुल्कों को पिछवाड़े से उकसाता रहा है..(साथ ही आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक सहयोग भी) करता रहा है..आचानक जाते हुए राष्ट्रपति ने कौन सी घुट्टी पी ली है..जो सब कुछ बुलाकर भारत का हितैषी बन गया है..एख बहुत छोटा सा सवाल किसी ने मुझसे पूछ लिया कि ..भैय्या जब भारत को अपनी उर्जा जरूरतों के लिए क़रार करना ही है ..चो केवल अमेरिका के पीछे ही काहे पड़े हो..उससे भी बड़े सप्लायर है..न्यूकिलियर सप्लायर ग्रुप में उनसे काहे करार नहीं करते ..सवाल तो बड़ा छोटा है लेकिन मुद्दे को गंभीर बनाता है..वैसे भी हम भारतीयों की एक आदत जिससे हम मजबूर हैं..वो ये कि जब भी कोई बहस छिड़ जाती है..तो उसमें हम कूद जरूर जाते हैं ..उससे चाहे हमें छटाक भर भी लेना या देना न हो..उस वक्त हमें न तो अपने वक्त का खायाल रहता है..और बहस मुबाहिसे में लगे दूसरे भाई का ...लेकिन एक बात जो काफी अहम है....कि आम आदमी के हितों की आवाज कहीं न दब जाए..जो देश की सरकार को चुनने में सबसे ज्यादा भागीदार होता है(ये आंकड़े बताते हैं कि 50 से 60 फीसदी मतदान में सबसे बड़ा हिस्सा गांवो और कस्बों और शहर के निम्न मध्यम वर्गों से आता है) उसके टुने हुए प्रतिनिधियों को ये बारबार याद दिलाने की जरूरत है कि भाई उसका तो ख़याल करो जिसने तुम्हें अपना ख़ुदा बना दिया.
10.7.08
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2 comments:
दीक्षित जी,सरकार का तानाबाना टूटा कहां बस जनता को चूसने वालों ने समीकरण बदल लिये। परमाणु ऊर्जा वगैरह के संबंध में जनता मे न तो चेतना थी न ही दिखती है आने वाले दस हजार सालों तक :) जनता तो बस सरकार बना कर अपना काम निपटा लेती है :) जनता का बस एक ही काम रह गया है उचित शोषक चुनना.....
राधेश्याम जी,
बहुत अच्छा विषय है. मगर करार और परमाणु शक्ति, ऊर्जा, इस तरह के शब्द के लिए हमारे नेता परस्पर विरोधी या पक्षी जरूर हो जाते हैं, मगर जानने के नाम पर शिफर ही होते हैं जैसी की लैपटॉप चलाना आये या ना आये दे दो भैया.
प्रश्न जनता का तो नि:संदेह विचारवानों की जरूरत जू इन तकनिकी की गूढ़ता को समझे और लोगों को समझा सके. जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं तो इस करार का प्रबल पक्षधर हूँ. हमारी बदती जनसँख्या बढती जरूरतें और घटता संसाधन, भैये कहाँ से लायेंगे ऊर्जा, तेल, पेट्रोल और गैस. जो की हम बहार से खरीदते हैं और खरीदे दाम पर जनता को दें तो हम आप चिल्ल पों करने में सबसे आगे की सरकार मंहगाई ले के आई.
सोचिये, सभी सोचिये और तकनीकी विशेषज्ञों से राय लेकर राय रखिये.
जय जय भड़ास.
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