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12.4.09

साहित्य समाचारों की बेकदरी का आलम

आजकल शायद जयपुर ही क्या लगभग सभी शहरों में साहित्य सम्बन्धी समाचारों के साथ बहुत ही बुरा सलूक किया जाता है। इसका अनुमान या अंदाज़ तब लगता है जब आप ख़ुद आयोजक हों या किसी कार्यक्रम में शामिल रहे हों। मैंने एकाधिक बार इस बाबत 'भडास' में लिखा तो हमारे पत्रकार मित्र इस कदर बुरा मान गए किअब तो उन्होंने मेरे द्बारा दिए गए समाचार ही छापना बंद कर दिया है। बहरहाल नौ अप्रेल को हमने प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस को 'साहित्य दिवस समारोह' के रूप में मनाया। सब अखबारों को और मीडिया के मित्रों को फेक्स, ईमेल, एस एम् एस, निमंत्रण पत्रऔर बाकायदा चिट्ठी लिखकर सूचित किया और कवरेज़ के लिए आग्रह किया। कुछ अखबारों ने कार्यक्रम की पूर्व सूचना छपी, कुछ ने नही छापी।
कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। अखबारों के प्रतिनिधि, टेलीविजन चैनलों के लोग कवरेज़ के लिए आए। एक अख़बार जिसका दफ्तर कार्यक्रम स्थल के ठीक सामने था (अब भी वहीं है), वहाँ जिस रिपोर्टर की ड्यूटी लगाई गई, वो बार बार फोन किए जा रहा था कि सर ख़बर भिजवा दीजिये। मुझे गुस्सा आया कि यार दो कदम चलकर ख़बर लेने नही आ सकता, किसी चवन्नी छाप टीवी कलाकार से मिलने मीलों दौडे चले जायेंगे। खैर, प्रोग्राम का दूसरा सत्र शुरू होने पहले मैंने पहले सत्र कीख़बर बना ली थी और दूसरे सत्र की शुरुवात होने के बाद उसकी रूपरेखा के आधार पर उसे भी ख़बर में शामिल कर लिया था। कार्यक्रम समाप्त होने से पहले सब अखबारों को और मीडिया को ख़बर फेक्स से भेज दी गई थी। एक अखबार से फोन आया किफेक्स नही मिला, तो उन्हें फोन पर ख़बर लिखाई गई।

दूसरे दिन उस अख़बार में ख़बर नही थी, जिसका दफ्तर कार्यक्रम स्थल के ठीक सामने था। एक अखबार में छपी ख़बर में उन लोगों का नाम था जो कार्यक्रम में आए ही नही (वो हिन्दी का सबसे बड़ा अख़बार है)। एक अख़बार में, जिन्होंने फोन पर ख़बर लिखी थी, ख़बर में वो लिखा जो हुआ ही नही।
एक हादसा आज हुआ, दो बड़े अखबारों ने विष्णु प्रभाकर के निधन पर जारी हमारी शोक संवेदना भी नही छापी।
सवाल यह है, कि हिन्दी के अखबार हिन्दी साहित्य से सम्बंधित समाचारों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं। आपको अगर 'प्रेमचंद गाँधी' या किसी लेखक विशेष से दिक्कत है तो उसे अपने अखबार में मत लिखने दो, लेकिन समाचार छापने में क्या दिक्कत है भाई। हम अंग्रेज़ी अख़बार से तो अपेक्षा नहीं कर सकते कि वो हमारी खबरें ठीक से छापेंगे, कम से कम हिन्दी के अखबारों से तो इतनी उम्मीद कर ही सकते हैं?

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