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2.4.09

हिन्दी भाषा के संरक्षण व विकास से ही राष्ट्रोत्थान संभव

हिन्दी भाषा के संरक्षण व विकास से ही राष्ट्रोत्थान संभव
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है.यह अभिव्यक्ति आमजन की अस्मिता से लेकर राष्ट्र के आगत भविष्य निर्माण के लिए भी हो सकती है।इसलिए भाषा का प्रश्न केवल भाषा तक ही सीमित नहीं है.यह अपनी पहचान का प्रश्न है.क्या जो हम सोचते हैं , उसे अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्त करते हैं और यह अभिव्यक्ति हमारी पहचान बनाने में कितनी समर्थ हो रही है ? हमने अपनी आजादी की लड़ाई हिन्दी माध्यम से जीती है.हिन्दी की ऊर्जा का एकमात्र स्त्रोत आमजन है. आमजन ही भाषा की राष्ट्रीय गरिमा को प्रतिष्ठित करता एवं इसे कायम रखता है.भाषा का निर्माण टकसाल में न होकर सड़क पर होता है , चौपाल में होता है , गावं के गलियारों में होता है और उसका शिल्पी देश का आमजन है.भाषा की समृद्धि जन-जन की भाषा के प्रति सजगता , सक्रियता एवं जागरूकता पर निर्भर करती है.भाषा के विनाश एवं विकास में वही एकमात्र ज़िम्मेदार होता है.आज यह ज़िम्मेदारी खतरे में पड़ी नजर आती है.सबसे पहले मुगलों ने हिन्दी के साथ अन्य भाषाओं का संयोग-समन्वय किया.इससे हिन्दी भाषा का विभाजन नहीं हुआ,बल्कि उसकी विविधता में विकास हुआ.हिन्दी में उर्दू और फारसी आदि भाषाओं का सुंदर गठजोड़ हुआ. भाषा कई आयामों में विकसित हुई.विकास के इन मूल कारणों को अंग्रेजों की अंग्रेजी ने चोट मारी और इसे कमजोर कर हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी को प्रतिष्ठित बनाने का कुचक्र रचा गया. बहुत हद तक यह कुचक्र सफल हुआ , जिसका परिणाम हमारे सामने है कि हम हिन्दी से अधिक अंग्रेजी बोलने में गर्व अनुभव करते हैं.
हिन्दी के मूल में अंग्रेजी के कुठाराघात के बाद फिर से एक और प्रहार हो रहा है - भूमण्डलीकरण का . भूमण्डलीकरण के इस दौर में किसी स्वाधीन , संपन्न और आत्मनिर्भर राष्ट्र में दूसरे देश की भाषा विकास का पैमाना बने , यह कैसे स्वीकार्य होगा.यह भी सच है कि विश्व के किसी देश में भाषा की स्वाधीनता और उसकी निजता को इतने व्यापक विस्तार और बारीकी से नहीं लिया गया , जितना हमारे देश में और यह घटना आज भी जारी है. बाज़ारवादी व्यवस्था में हिन्दी की अस्मिता,अस्तित्व और निजता के लिए उत्तरदायी लोगों की अभिरूचि एसे गंभीर और बुनियादी सवालों पर नहीं है. वे इस भाषा को विश्वव्यापी बनाने, वर्तमान समय में अन्य भाषाओं के समान विकसित एवं समृद्ध करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. उन्हें भाषागत स्वाभिमान की बात बेकार और ग़ैरज़रूरी लगती है. बाज़ारवाद तत्कालिक आवश्यकता को सर्वाधिक अहमियत देता है. वह एसी संकर भाषा निर्मित करता है , जिससे केवल उसका हित सध सके. वह अपने लाभ के लिए आज हिन्दी भाषा का , जितना सर्वनाश कर सकता है , कर रहा है और इसके प्रति हमारी घोर उदासीनता ने हमारी पहचान को प्रश्न के घेरे में खड़ा कर दिया है. चांदी के चन्द सिक्कों में हम अपनी पहचान खोने लगे हैं. अगर एसा नहीं है तो क्या कारण है कि हमें अपनी हिन्दी एवं अन्य मातृभाषा बोलने में संकोच होता है.एसा संकोच तो चीनी , रूसी , जर्मन एवं फ्रांस के लोग नहीं करते, वे तो अपनी ही भाषा को प्राथमिकता देते हैं.
आज हिन्दी की नियति एवं परिस्थिति अत्यंत चिंताजनक है. आंकड़ों के आईने में देखें तो हिंदीभाषी देश में अंग्रेजी जानने वालों की संख्या कुल आबादी का तीन प्रतिशत है. लगभग दो सौ वर्ष के अंग्रेज आधिपत्य और 58 साल के चहुंमुखी विकास के बावजूद अंग्रेजी का विकास संभव नहीं हुआ , फिर भी अंग्रेजी मोह नहीं जाता. विचारणीय यह भी है की शेष सतानवे प्रतिशत जनता क्या चाहती है,उसकी अपेक्षाएं क्या है ? निरक्षरता आज की सबसे बड़ी चुनौती है , इसके निराकरण में केवल भारतीय भाषाएं ही सहायता कर सकती हैं.भाषा का निर्माण जनसामान्य करते हैं , अंततः इसकी रक्षा वही करेगें, क्योंकि सरकार,आयोग और आयोजन न भाषा का निर्माण करते हैं और न परिष्कार-परिमार्जन. हिन्दी भाषा का उत्थान भी इन्हीं जनसामान्य के हाथों में है. अतः जनसामान्य की जागरूकता आवश्यक है।
बाज़ारवाद के घोर समर्थक एवं पक्षधर अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार एवं विस्तार में अधिक रूचि दिखाते हैं, क्योंकि इसी में उनका लाभ है. तीन प्रतिशत भारतीयजनों के लिए इतनी सजगता और सतानवे प्रतिशत जनता के लिए इतनी उपेक्षा क्यो ?विदेशी भाषाओं को सीखने , समझने एवं व्यवहार करने में कोई समस्या नहीं है,परंतु इन्हें अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में वरीयता प्रदान करना अत्यंत घातक एवं चिंताजनक है।अंग्रेजी अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान में संवाद की भूमिका निभाए तो स्वीकार है .
हिन्दी साहित्य के शिरोमणि मुंशी प्रेमचंद के शब्द हैं- 'राष्ट्र की बुनियाद राष्ट्र की भाषा है.भाषा ही वह बन्धन है, जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रहती है और इसे बिखरने,विखंडित एवं विभाजित होने से रोकती है.' राष्ट्रनिर्माण के पुरोधा श्री अरविंद कहते हैं कि किसी राष्ट्र अथवा मानवीय समुदाय की आत्मा के लिए यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि वह अपनी भाषा की रक्षा करे और उसे एक सशक्त और सजीव सांस्कृतिक बना ले.जो राष्ट्र , जाति और जनसमुदाय अपनी भाषा खो देता है, वह अपना संपूर्ण एवं सच्चा जीवन व्यतीत नहीं कर सकता.

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