विनीत जी,
आजकल मैं कुछ इस तरह से सोच रहा हूं..............मान लीजिए कि एक दुनिया है, जिसमें दो तरह के लोग होते हैं, एक मालिक लोग, दूसरे मालिक की कंपनियों में नौकरी करने वाले लोग। ये जो मालिक लोग हैं, उनका सोचने का तरीका बिलकुल अलग होता है। उनके घर पैदा हुआ लौंडा बचपन से ही बिजनेस, कंटेंट, प्रोडक्ट, मार्केटिंग, रेवेन्यू, मैन पावर, रिसेसन, प्राफिट, शेयर, सेंसेक्स, वेंचर, प्रोजेक्ट, इनवेस्टमेंट, शेयरहोल्डिंग, इनफ्रास्ट्रक्चर, इकानामिक पालिसी जैसे दर्जनों विशिष्ट शब्दों को सुनते-सीखते बढ़ता है और फिर सहज स्वाभाविक रूप से अपने बाप के अब तक के सफल (पूंजी के लिहाज से) काम को और ज्यादा सफल बनाने के लिए हर माडर्न हथियार (टेक्नालाजी, मैनेजमेंट, विजन..) का इस्तेमाल करते हुए जुट जाता है। इस मालिक की कंपनियों में काम करने वाले जो दूसरे तरह के लोग होते हैं, उनके लौंडे बचपन से गांधी जी, सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, नौकरी, सिपाही, डिप्टी कलेक्टर, किसानी, भाईचारा, नैतिकता जैसे धीर-गंभीर शब्द सुनते-सीखते हैं और जब बड़े होकर बाजार में उतरते हैं तो अपने को या तो इस बाजार में फिट नहीं पाते या फिर बाजार को कोसते हुए खुद को अलग कर लेते हैं। जो बाजार में घुस जाते हैं वे काफी लंबे समय तक बाजार के फंडे को सीखने बूझने में ही वक्त लगा देते हैं और जब तक सीख समझ पाते हैं तब तक उनके रिटायरमेंट की उम्र आ जाती है।
गांव में जिस गाय-भैंस खरीदकर पशु मेले में बढ़े दाम पर बेचने वाले को दलाल कहा जाता है, इसी मुनाफे के शहरी, नियोजित और आधुनिक खेल खेलने वालों को इंटरप्रेन्योर, उद्यमी या शेयर ब्रोकर कहा जाता है। जब कोई देसज हिंदी वाला मालिक लोगों की श्रेणी में आने की कोशिश करता है तो उसकी पहली लड़ाई खुद उसी की विचारधारा से होती है। यह आंतरिक वैचारिक जंग अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग समय तक और अलग-अलग लेवल पर चलती रहती है। यह डिपेंड करता है उस व्यक्ति के माइंडसेट, उसके अनुभव, उसके पलने-पढ़ने के माहौल और सोचने के तरीके पर। जितने भी दिनों बाद, इस वैचारिक जंग में अगर आप जीतकर मालिक के माइंडसेट के करीब पहुंच जाते हैं तो आप फिर स्पष्ट विजन और लक्ष्य के साथ आगे बढ़ पाते हैं।
मुनाफे और लाभ की कोई नैतिकता नहीं होती, बल्कि यूं कहें कि मुनाफा और लाभ मूलतः अनैतिक चीज है तो कोई गलत नहीं है लेकिन यह सिस्टम इस तरह बनाया जा चुका है कि बिना मुनाफे कमाए न तो किसी किराने वाले की दुकान चल सकती है और न ही अंबानी जी की कंपनी। बिना अतिरिक्त रकम कमाए न तो कोई ब्यूरोक्रेट जी सकता है और न ही कोई राजनेता। मैं उन राजनेताओं और ब्यूरोक्रेटों की बात कर रहा हूं जो मुख्यधारा में हैं, जो सत्ता के नजदीकी हैं। सत्ता का करीबी ब्यूरोक्रेट अगर अतिरिक्त कमाई नहीं भी करता है तो वह उद्यमियों कंपनियों द्वारा तरह तरह से ओबलाइज किया जाता है। तो यह जो मुनाफा और लाभ है, वह कमाने वाले के उपर होता है कि वह अपने मुनाफे और लाभ को कितना कानूनी चोला व सामाजिक जामा पहना कर दूसरी श्रेणी वाली जनता उर्फ जनता से बने समाज को दिखा पाता है। जितना नंबर एक में दिखा पाया, दिखा दिया, बाकी दो नंबर के धन के बारे में कितना कुछ कहा लिखा जा चुका है, सब जानते हैं।
संजय जी 24 कैरट वाले पत्रकार और मनुष्य हैं। वे जिस सदभावना और नेकनीयती की अपेक्षा समाज से रखते हैं, वो सदभावना और नेकनीयती अब समाज की मानसिकता में बची नहीं क्योंकि समाज की सदभावना और नेकनीयती को अतीत में ढेरों चिटफंड कंपनियों, नेताओं, अफसरों, चोरों, उचक्कों, दलालों ने कई कई बार ठगा है इसलिए सहज रूप से किसी पर भरोसा न करने की जो प्रवृत्ति डेवलप हो रही है, वह बाजार अनुकूल जरूर है लेकिन समाज व मनुष्यता विरोधी है।
पर क्या करा जाए पार्टनर, लाख गाल बजाने के बावजूद आप और हम, इसी बाजार के कल पुर्जे हैं और हम सभी कम या ज्यादा नैतिक, अनैतिक, पाखंडी, हिप्पोक्रेट, सहज होकर हंसते-रोते इसी से जी खा रहे हैं। हर आदमी को खुद अपने लिए तलवार की धार तय करना है कि वह कितना बाजारू बनेगा, कितना अनैतिक बनेगा, कितना सामाजिक रहेगा, कितना मानवीय रहेगा, कितना लोकतांत्रिक रहेगा, कितना नैतिक रहेगा। इन्हीं मीडिया हाउसों की जिस नैतिकता की हम लोग बात करते हैं, वह भी तलवार की धार की तरह ही है। इस तलवार की धार को हर मीडिया हाउस अपने लिए अलग-अलग तरीके से व्याख्यायित करता है और जीता है। एनडीटीवी अपने चेहरे को ज्यादा मानवीय और नैतिक बताकर ज्यादा प्राफिट कमाने में जुटा रहता है तो वायस आफ इंडिया खुले तौर पर पैसे उगाहने में जुटा रहता है। काम दोनों एक ही कर रहे हैं लेकिन दोनों के आंडबर अलग-अलग हैं। दोनों की शब्दावलियां और दोनों के बाडी लैंग्वेज अलग-अलग हैं। कुछ उसी तरह जैसे एक प्रोफेशनल काल गर्ल प्रोफेशनल तरीके से क्लाइंट पटाकर ज्यादा माल मुनाफा कमा लेती है और वहीं ट्रेडिशनल वेश्या कुछ नोटों पर तन देने के लिए तैयार बैठी रहती है लेकिन उसकी तरफ थर्ड ग्रेड के क्लाइंट भी मुश्किल से ही पहुंच पाते हैं।
मैं इन सारे विषयों पर अलग से लिखने के मूड में हूं क्योंकि हिंदी वाले देसज लोगों के माइंडसेट में बदलाव की जरूरत है। हम नहीं कहते कि आप बेइमान बनिए लेकिन किसी बेइमान के अंडर में ईमानदारी से काम करते हुए भी आप कितने इमानदार रह पाते हैं, कहना मुश्किल है। आप फिर कहीं न कहीं उस बेईमान के धंधे को ही बढ़ाने का काम कर रहे हैं और इस प्रकार आप भी बेईमानों की जमात में शामिल हैं। तो ये जो ईमानदारी और बेईमानी जैसे शब्द हैं, इनकी माइक्रो व्याख्या की जरूरत है।
इस मुद्दे पर काफी कुछ कहना चाहता हूं लेकिन कमेंट में ही पोस्ट लिखने की स्थिति आ चुकी है, इसलिए विराम दे रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि इस बहस को स्वस्थ उद्देश्य के लिए आगे बढ़ाएंगे, खुद को अति ईमानदार और अति विद्वान साबित करने के परंपरागत और सामाजिक मोह-आग्रह के बगैर।
(यह कमेंट विनीत कुमार के ब्लाग गाहे-बगाहे पर प्रकाशित एक पोस्ट संजय तिवारी की बात पर भावुक होना जरुरी है ? पर प्रकाशित किया है।)
15.5.09
.........ये जो मालिक लोग हैं और ये जो उनके नौकर लोग हैं.........
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1 comment:
shrimanji, aapne mere dil k kisi kone me sulag rahi chingari ko hava di hai ------------yon samajho ki vo wali rag dabadi hai
is hahakari post k liye
LAKH LAKH BADHAIYAN
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