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15.5.09

...तुरंत फतवा जारी करने वाली हम हिंदी बौद्धिक लोगों की आदत....

विनीत जी, एक बात और, आपने लिखा है...

...............इस सवाल पर विचार करने के क्रम में जाहिर है कि न तो संजय तिवारी की समझ को और न ही भड़ास4मीडिया के यशवंत सिंह के समर्थन को कि....आज के दौर में 100 फीसदी इमानदारी से जीना बहुत मुश्किल है, वो भी दिल्ली में खासकर... को एक मानक स्थिति मानकर सोचा जा सकता है......

उपरोक्त जो न्याय करने की आपकी बौद्धिक मुखमुद्रा है, वह दिक्कत पैदा करने वाली है और बहस को आगे बढ़ाने से रोकती है। यह खुद को पंच, महंत और मठाधीश मानकर कही गई बात है। संजय तिवारी, यशवंत सिंह, शैलेश भारतवासी ये सभी लोग अगर कोई पहले से ही कोई धीर-गंभीर महंतई नुमान निष्कर्स निकालकर प्रयोग करेंगे तो तय मानिए पिटेंगे। आप जब प्रयोग करते हैं तो आपको बेहद खुले दिल दिमाग से सब कुछ रिसीव करना होता है और उन्हें एनालाइज करना होता है। कई बार डाक्टर किसी को बता देते हैं कि आपको एड्स के लक्षण हैं, आपको हेपाटाइटिस है लेकिन जब वो बारीकी से ठीक जगह चेक कराया जाता है तो पता चलता है कि कहीं कुछ नहीं है लेकिन वो बेचारा मरीज खुद को एड्स व हेपाटाइटिस का मरीज मानकर अपना आधा खून सुखा चुका होता है।

आपने एक लाइन में इस छोर और उस छोर वाली जो नारेबाजी युक्त सरलीकृत लाइन खींच दी है उससे आपने लोगों को मजबूर कर दिया है वे न खुलें और इसी लाइन रूपी मानक के इर्द गिर्द अपने विचार प्रकट करें। हो सकता है कोई मेरे जैसा हो जो साफ-साफ बताना चाहे कि वो अपने मार्केटिंग व बिजनेस के एक्सपीरियेंस के दौरान किस तरह कंपनियों के साथ बातचीत करता है, उनसे एसोसिएशन बनाता है, तो वो तो कुछ नहीं करेगा क्योंकि उसे लगेगा कि यहां तो गांधी जी की औलादें बैठी हैं और वो बेचार कहां धन कमाने के लिए यहां वहां भटकने वाला सामान्य सा आदमी।

भाई, कौव्वों की तरह किसी पर तुरंत कांव-कांव करने का काम अगर मेरे चिर विरोधी कर रहे होते तो उन्हें मैं कुछ नहीं कहता क्योंकि चरम मूर्ख और मंद बुद्धि को आप कुछ सिखा ही नहीं सकते और न ही उनसे कोई उम्मीद कर सकते हैं। मूर्ख व मंद बुद्धि कहीं जाएगा तो सबसे पहला काम वो अपनी मूर्खता का प्रदर्शन अपने बोलने से करेगा, वो अपनी बात नहीं करेगा, दुनिया जहान और दूसरों की लंबी-लंबी बात पेलेगा। हो सकता है एकाध मूर्ख मेरे लिखे पर गरियाने इस ब्लाग पर भी कमेंट देने आ जाएं :) लेकिन जब बात विनीत कुमार की हो रही है तो उम्मीद बंधती है कि चलो अपने समय में एकाध दो ऐसे लड़के खड़े हो रहे हैं जो चीजें को बेहद रीयलिस्टिक, माडर्न एप्रोच और तटस्थ तरीके से एनालाइज करने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान रखिए, जल्दबाजी कभी मत करिए। किसी सूचना व तथ्य पर जब तुरंत कोई निष्कर्स निकालते हैं तो वो कुछ और होगा और थोड़े बहुत नए इनपुट व एंगल के बाद थोड़ा ठहरकर निकालेंगे तो कुछ और निकलेगा। तर्क मैथ और साइंस की तरह नहीं होता जिसमें आप दो दूना चार कर देते हैं और चैलेंज कर देते हैं कि दो दूना चार के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता। एक ही चीज के लिए लाख तरीके के निष्कर्स निकाले जा सकते हैं, यह तर्क की खूबी और खराबी होती है। यह तर्क करने वाले पर होता है कि उसे साबित क्या करना है। तो कोशिश यही हो कि चीजें ज्यादा रीयलिस्टिक और माइक्रो एनालिसिस लिए हुए हों, निष्कर्स निकालने का काम हमेशा पाठकों पर छोड़िए। जनता की तरह पाठक भी बहुत समझदार होता है, वो हर गाली और हर आशीर्वाद का मतलब समझता है।

तुरंत न्याय करने वाली और तुरंत फतवा जारी करने वाली हम हिंदी बौद्धिक लोगों की प्रवृत्ति जिसमें हम किसी को तुरंत चोर और किसी को तुरंत महान बता देते हैं, दरअसल यह भी मालिक के नौकर वाली मानसिकता व माहौल की उपज है। उसी पाखंड की उपज है जिसमें आमतौर पर चोर महाराज अपने अपराधबोध को कम करने के लिए महान की मुद्रा में होते हैं और जो वाकई ईमानदार है वो अपनी ईमानदारी के आत्विश्वसा में ऐसा कुछ कर कह जाता है कि उस पर बेईमान का लेबल चस्पा हो जाता है। यही जल्दबाजी, न्यायपूर्ण और पाखंड भरी मुखमुद्रा आप लोगों से कभी भड़ास डाट काम पर दलाली होती है तो कभी यशवंत बलात्कारी हिंदी की महान शैतान कथा जैसी पोस्टें लिखने-लिखाने पर मजबूर करती हैं। आमतौर पर हम हिंदी वाले इन फतवों से बहुत डरते हैं लेकिन जिस दिन इन फतवों को जीवन का जरूरी हिस्सा मानकर सहज रूप से लेते हुए अपने को एकाग्र कर आगे चलने की कोशिश करना सीख लेते हैं, उस दिन लगने लगता है कि यार हम अब तक कहां और किस तरह के माइंडसेट के लोगों के बीच जी रहे थे!!!!!!!

संजय जी के आर्टिकल पर किसी पवनसुत ने एक लाइन का कमेंट किया है कि चुनाव में माल कमाने के बात दुकान बढ़ा रहे हो भाई। ये कमेंट संजय जी को विचलित कर गया। यह संजय जी का आंतरिक द्वंद्व है जिसमें वो किसी भीड़ की तरफ से उछाले गए जुमले से प्रभावित हो जाते हैं। आप ये मानकर चलिए कि जब आप भीड़ से थोड़ा उपर उठते हैं तो भीड़ आपको अपने हिसाब से एनालाइज करती है। कुछ बताएंगे कि चोरी से बढ़ा है, कुछ कहेंगे कि दलाली किया है, कुछ कहेंगे कि मेहनती और प्रतिभाशाली था, इसलिए बढ़ा है, कुछ कहेंगे कि कोई विकल्प नहीं था इसलिए मजबूरी में बढ़ गया है..... जाकी रही भावना जैसी।

संजय तिवारी जी की पोस्ट पर मैंने जो कमेंट किया है, उसमें संजय जी के दर्द को ही आगे बढ़ाया है, अपने अऩुभव को उड़ेलते हुए। संजय जी अपनी पीड़ा कह गए, हो सकता है यह पीड़ा शैलश जी और मैं कुछ दिन बाद कहूं या फिर हो सकता है कि हम लोग हाथ पांव मारकर अपने को जिला ले जाएं ...कुछ भी हो सकता है क्योंकि हम नए और कच्चे खिलाड़ी हैं बाजार के खेल के।

पता नहीं आपको मालूम है कि नहीं, रिलायंस और धीरूभाई अंबानी पर उस जमाने में भ्रष्टाचार के इतने आरोप, किस्से, चर्चे क्यों थे.....??? मेरे एक वरिष्ठ उद्यमी मित्र ने बताया कि धीरूभाई अंबानी देश के बड़े उद्यमियों की जमी-जमाई जमात में अच्छे खासे तरीके से घुसपैठ कर रहे थे और उन स्थापित व परंपरागत अरबपतियों के धंधे को चुनौती पेश कर रहे थे इसलिए उन सभी ने मिलकर प्रेस व सत्ता पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए धीरूभाई को खलनायक साबित कराने की भरसक कोशिश की और इसमें काफी हद तक सफल भी हुए। उस मित्र का कहना है कि धीरूभाई ने उतना ही या उससे भी कम भ्रष्टाचार किया था जितना वे जमे-जमाए उद्यमी करते थे लेकिन धीरूभाई आरोपी इसलिए बन गए क्योंकि उन्हें बाजार के स्थापित दिग्गज यूं ही अपने बराबर खड़ा देख पाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें अपनी दुनिया में किसी देसी और नए का घुसपैठ मंजूर नहीं था। उनकी इलीट मेंटलटी उन्हें उकसा रही थी कि इस नए उद्यमी को नष्ट करो वरना हम सबके धंधे को चौपट कर देगा। बड़ी बड़ी कंपनियां सत्ता और विपक्ष में बैठे लोगों को अरबों-खरबों का चंदा इसलिए देती हैं क्योंकि उन्हें सरकारों से अपने अनुकूल नीतियां बनवानी होती हैं।

यह एक रुटीन और सहज कार्य है जो हर देश में संपादित किया जाता है लेकिन यह इतना उच्च भ्रष्टाचार होता है कि इस भ्रष्टाचार को सीबीआई रा सीआईडी जैसी तमाम खुफिया संस्थाओं के ईमानदारी के राडार कैच ही नहीं कर पाते। ऐसा क्यों है कि अनिल और मुकेश अंबानी चुनाव नतीजों से ठीक पहले आडवाणी समेत तमाम दिग्गज नेताओं से मिलने लगे हैं, क्योंकि सरकार बनवाने गिराने में इन धनपशुओं का बहुत बड़ा रोल रहता है। तो ये काम उद्यमी बहुत पहले से करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे क्योकि इनके टर्मनोलोजी में यह सब कुछ करना कतई भ्रष्चाचार नहीं होता बल्कि यह उनके जीवन जीने के हिस्से का अनिवार्य 'नैतिक अंग' होता है।

नीत्शे को मैं सपोर्ट नहीं करता लेकिन उनकी जो बात है, गुलाम मानसिकता और प्रभु मानसिकता, वो काफी कुछ आधुनिक लोकतंत्रों में देखने को मिल जाता है। नीत्शे के हिसाब से देखें तो हम लोग ब्लाग पर ये जो कुछ अल्ल बल्ल सल्ल कर रहे हैं ये गुलाम मानसिकता वालों की चोंचलेबाजी है जो अपना जीवन आदर्श व सिद्धांतों के द्वंद्व के बीच ही गंवा-गुजार देते हैं। नीत्शे के मुताबिक प्रभु मानसिकता वालों के एजेंडे में ये ईमानदारी, नैतिकता, मानवीयता, करुणा जैसे शब्द होते ही नहीं। उन्हें हमेशा विजेता रहना है इसलिए वे किसी भी तरह विजेता रहना चाहते हैं और विजेता बनने के लिए वो सब कुछ करते हैं जिससे विजेता बनने की राह आसान होती हो। पर नीत्शे को सपोर्ट नहीं किया जा सकता। नीत्शे जैसे लाखों दर्शनशास्त्री हैं और इन्हें पढ़कर केवल यह जाना जा सकता है कि मनुष्यों के दुनिया देखने के तरीके कितने हैं और हमारा खुद का तरीका क्या है।

तो विनीत जी, आपसे गुजारिश है कि बहसों का निष्कर्स शुरू में ही मत निकाला करिए। यह गलती पहले मैं भी करता था लेकिन मुझे अब लगने लगा है कि मैं कुछ नहीं जानता। मुझे बहुत कुछ जानना सीखना है। जिस दिन यह समझ गया उस दिन से मैं अब कहीं भी खुद के विचार लिखने से परहेज करने लगा हूं क्योकि मैं वो नहीं लिखना चाहता जो मैं महसूस नहीं करता और जो जीता नहीं।

आभार के साथ
यशवंत

(यह कमेंट विनीत कुमार के ब्लाग गाहे-बगाहे पर प्रकाशित पोस्ट "संजय तिवारी की बात पर भावुक होना जरुरी है ?" पर प्रकाशित किया गया है)

1 comment:

Unknown said...

achha laga
BADHAI