लश्कर आतंकी डेविड हेडली के मामले में अमेरिका के आचरण को भारत विरोधी बता रहे हैं राजीव सचान
इस परिदृश्य पर शायद हर किसी ने विचार किया होगा कि तब क्या होता जब अमेरिका में किसी आतंकी वारदात में शामिल रहे व्यक्ति को भारत ने पकड़ा होता? इसमें किसी को संदेह नहीं कि अमेरिकी अधिकारियों ने भारत आकर न केवल उससे गहन पूछताछ की होती, बल्कि उसे अपने साथ अमेरिका ले भी गए होते, भले ही वह कुछ मामलों में भारत में वांछित होता। अमेरिका ने मुंबई हमले की साजिश रचने वाले पाकिस्तान मूल के अपने नागरिक दाऊद गिलानी उर्फ डेविड कोलमेन हेडली को भारत प्रत्यर्पित करना तो दूर रहा, उसकी शक्ल तक नहीं देखने दी। शिकागो में उसकी गिरफ्तारी के बाद उससे पूछताछ करने गए भारतीय अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया गया और अब यह सुनिश्चित किया गया है कि उसे भारत न ले जाया जा सके। अमेरिकी न्याय प्रणाली में यह व्यवस्था है कि यदि कोई अपराधी अपना गुनाह कबूल करने को तैयार हो तो उसे सजा देने में नरमी बरती जाती है। माना जाता है कि इससे आपराधिक मामलों का निपटारा होने में आसानी होती है। इस व्यवस्था के अपने गुण-दोष हैं और उस पर भारत या अन्य किसी देश की आपत्ति का कोई मतलब नहीं, लेकिन यह कहां का न्याय है कि किसी अपराधी को उस देश की पहुंच से दूर कर दिया जाए जहां उसने जघन्य अपराध किया हो? अमेरिका ने ठीक यही किया है। उसने दाऊद गिलानी से उसकी सुविधानुसार समझौता कर लिया। उसे न केवल मृत्यु दंड से बचने का अवसर दिया गया, बल्कि भारत, डेनमार्क और पाकिस्तान को न सौंपने का वचन भी दिया गया। यह समझना मुश्किल है कि समझौते के लिए गिलानी लालायित था या अमेरिकी प्रशासन? एक आतंकी से समझौते के बावजूद भारत को कोई आपत्ति नहीं है और उल्टे भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा कथित अमेरिकी सहयोग से संतुष्ट हैं। आखिर इसमें संतुष्ट होने जैसा क्या है और वह भी तब जब सहयोग का नामों-निशान तक नहीं दिखता। या तो यह भारतीय नेतृत्व का दीवालियापन है अथवा अमेरिका के समक्ष याचक मुद्रा में रहने की मानसिकता कि किसी ने इस पर मुंह खोलने का साहस नहीं किया कि दाऊद गिलानी से समझौता कर अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर किया है और इस अनुचित समझौते से मुंबई हमले के गुनहगारों का पर्दाफाश करने में कठिनाई आएगी। दाऊद गिलानी और अमेरिकी प्रशासन के बीच हुआ समझौता इसलिए कहीं अधिक आपत्तिजनक है कि वह गिलानी की शर्ताें के हिसाब से हुआ। इस समझौते से यह साफ हो गया कि गिलानी अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई का भेदिया था, जो बाद में लश्कर का आतंकी बना। माना तो यह भी जा रहा है कि अमेरिकी अधिकारियों को इसकी जानकारी थी कि दाऊद गिलानी लश्कर की किसी साजिश को अंजाम देने के लिए ही बार-बार भारत के चक्कर लगा रहा है, लेकिन उन्होंने उसके खिलाफ समय रहते कोई कार्रवाई इसलिए नहीं की, क्योंकि वे उसे लश्कर के और करीब होते हुए देखना चाहते थे। तनिक गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुंबई हमला पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की सक्रियता के साथ-साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई की निष्कि्रयता का भी नतीजा है। गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत एक ओर पाकिस्तान पर दबाव बनाने में असमर्थ है तो दूसरी ओर अमेरिका से शिकायत करने में भी संकोच कर रहा है। क्या अमेरिका से नाराजगी जाहिर करने से वह नाराज हो जाएगा? क्या उसके नाराज होने से भारत का अहित हो जाएगा? क्या दाऊद गिलानी के साथ समझौता करने से भारत का हित हुआ? क्या अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की अनदेखी करने से हमारा हित हो रहा है? क्या कश्मीर पर पाकिस्तान से सीधी बात करने के दबाव से भारत का हित हो रहा है? यह मनमोहन सिंह ही बता सकते हैं कि भारत अमेरिका के समक्ष इतना दीनहीन क्यों है, क्योंकि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान को खुश करने में जुट गया है। इसके प्रबल आसार हैं कि वह पाकिस्तान के साथ भारत सरीखा नाभिकीय समझौता न सही, कुछ ऐसा करेगा जिससे पाकिस्तान को यह कहने का अवसर मिल जाए कि वह भारत से कम नहीं है। जार्ज बुश ने भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तौलने की जिस नीति का परित्याग किया था, लेकिन ओबामा ऐसा कर रहे हैं कि जिससे दोनों देश फिर से एक ही तराजू पर दिखाई दें। मुंबई हमले की जमीन तैयार करने के दौरान दाऊद गिलानी भारत में जिन भी लोगों से मिला वे उसके दोस्ताना रवैये के कायल हो गए, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि वह तो आतंकी था। मनमोहन सिंह की पिछली अमेरिका यात्रा के दौरान ओबामा ने उनके प्रति जैसा दोस्ताना व्यवहार किया वह भारतीयों को मुग्ध कर गया। व्हाइट हाउस में मनमोहन सिंह की आवभगत से ऐसा लग रहा था कि ओबामा भारत के सबसे बड़े हित रक्षक हैं। अब आम भारतीय खुद को ठगा महसूस कर रहा है, खासकर इसलिए कि डेनमार्क दाऊद से पूछताछ कर चुका है। अमेरिका के इस आश्वासन पर मनमोहन सिंह संतुष्ट हो सकते हैं कि भारत को दाऊद गिलानी से पूछताछ करने की इजाजत मिलेगी। समस्या यह है कि इस सबके बावजूद मनमोहन सिंह अमेरिकी राष्ट्रपति से अगली मुलाकात में यह कह सकते हैं कि भारत के लोग आपको बहुत चाहते हैं। दरअसल यह कुछ भी नहीं, क्योंकि जब वह यूसुफ रजा गिलानी से बलूचिस्तान में भारत की भूमिका पर चर्चा के लिए राजी हो सकते हैं तो फिर दाऊद गिलानी का बचाव करने वाले ओबामा की सराहना भी कर सकते हैं। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
25.3.10
आतंकी का साथी अमेरिका
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