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25.3.10

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा

उच्चतम न्यायालय की एक समिति के इस निष्कर्ष पर तनिक भी आश्चर्य नहीं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली नितांत अक्षम और भ्रष्ट है। भले ही उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डीपी वधवा की अध्यक्षता वाली केंद्रीय सतर्कता समिति ने यह न स्पष्ट किया हो कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सब्सिडी पर सालाना 28000 करोड़ रुपये की जो भारी-भरकम राशि खर्च की जाती है उसमें कितना हिस्सा भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चला जाता है, लेकिन इस प्रणाली में जिस तरह हर स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है उसे देखते हुए पांच-दस प्रतिशत राशि का भी सदुपयोग होने की उम्मीद नहीं है। चूंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है इसलिए इसमें संदेह है कि कुछ कड़े कदम उठाने से अपेक्षित सुधार आ जाएगा। ऐसा होने की उम्मीद इसलिए और भी कम है, क्योंकि अफसरशाही, राशन दुकानदारों और दलालों के बीच गठजोड़ कायम हो चुका है। इसके चलते गरीबों का खाद्यान्न राशन दुकानों तक पहुंचे बगैर सीधे आटा मिलों तक पहुंच जाता है। यह शर्मनाक है कि यह काम दिल्ली तक में होता है। जब दिल्ली में यह हाल है तो इस पर सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि शेष देश में और भी बुरी स्थिति होगी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए बिलकुल भी गंभीर नहीं हैं। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार निर्धन तबके को 28 हजार करोड़ रुपये की जो सब्सिडी देती है वह राज्य सरकारों की लापरवाही के चलते अफसरशाही, राशन दुकानदारों और दलालों के गठजोड़ को उपलब्ध हो रही है। एक तरह से केंद्र और राज्य सरकारें भ्रष्टाचार की एक सार्वजनिक प्रणाली चला रही हैं। यह समझना कठिन है कि गरीबों के नाम पर ऐसी प्रणाली चलाते रहने का क्या अर्थ जो सिर्फ भ्रष्ट तत्वों को मालामाल कर रही हो? वैसे तो राज्य सरकारें बात-बात में केंद्र को कठघरे में खड़ा करती रहती हैं, लेकिन सच यह है कि वे अपनी हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने में सर्वथा नाकारा हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के भ्रष्टाचार में जकड़ जाने के लिए राज्य सरकारें केंद्र को दोष नहीं दे सकतीं। उन्हें इसका पूरा-पूरा अधिकार है कि वे इस प्रणाली को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए हर संभव उपाय करें। शायद ही कोई राज्य सरकार हो जिसने इस प्रणाली में कोई उल्लेखनीय सुधार किया हो। ऐसा लगता है कि केंद्र सब्सिडी बांट कर खुश है और राज्य राशन दुकानें खुलवाकर। वधवा कमेटी ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जो भयावह तस्वीर सामने रखी उसकी हकीकत से केंद्र और राज्य सरकारें पहले से अवगत थीं, लेकिन ऐसा लगता है कि वे उच्चतम न्यायालय के दखल के इंतजार में बैठी थीं। नि:संदेह यह न्यायपालिका का काम नहीं कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुर्दशा देखे, लेकिन उसे इसके लिए विवश होना पड़ा। उसकी विवशता शासनतंत्र के नाकारापन का एक और शर्मनाक उदाहरण है। यदि केंद्र एवं राज्य सरकारें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार और गरीबों की मदद करने के लिए तनिक भी प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें इस प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करके दिखाना होगा। आवश्यकता पड़ने पर इस प्रणाली को खत्म कर निर्धनों को सीधे खाद्यान्न कूपन देने में भी संकोच नहीं किया जाना चाहिए।
सम्पादकीय दैनिक जागरण

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