(२३ मार्च, लोहिया जन्मशती पर विशेष)
उपदेश सक्सेना
वर्तमान भारतीय लोकतान्त्रिक परिद्रश्य में समाजवाद के पुरोधा डा. राममनोहर लोहिया का यह कथन कि "जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं" बड़ा सामायिक साबित होता दिखता है. वे यह भी कहते थे कि ' लोग मेरी बात सुनेंगे ज़रूर, लेकिन मेरे मरने के बाद'. जब डा. लोहिया ने यह विचार प्रतिपादित किये थे तब आज जैसी राजनीतिक अस्थिरता का दौर नहीं था, मगर राजनीति की नब्ज़ को उन्होंने उस वक़्त महसूस कर लिया था. कुछ गिने मौकों को छोड़ दिया जाय तो आज़ादी के बाद से ही देश का राजनीतिक परिद्रश्य कांग्रेस-भारतीय जनता पार्टी के इर्द-गिर्द मंडराता रहा है. कुछ राज्यों में ज़रूर क्षेत्रीय दलों को बढ़ने के मौके मिले हैं, मगर वे देश की राजनीति को ज्यादा प्रभावित नहीं करते. कुछेक राज्यों में ही जातिवादी राजनीति का असर दिखाई देता है, इसे भी वहां की स्थानीय मजबूरियां कहा जा सकता है. बायपोलर या रोटेशन की राजनीति में अन्य दलों को मौक़ा नहीं मिल पा रहा है. ' लगातार एक ही तरह की खाद देने से उर्वरा भूमि भी बंज़र हो जाती है', कुछ ऐसा ही देश की राजनीतिक भूमि का हाल हो चला है. विचारधारा किसी भी व्यक्तिविशेष या राजनीतिक दल की धरोहर होती है, समाजवाद एक विचारधारा भी है और आन्दोलन भी.आज देश को जिस सामाजिक, वैचारिक और व्यवस्थागत परिवर्तन की दरकार है,इसके लिए उत्साही, निर्भीक, चरित्रवान और सत्य के लिए लड़ने की क्षमता युक्त जुझारू, कर्मठ युवा उर्जा की जरुरत है. लोहिया के मन में भारतीय गणतंत्र को लेकर ठेठ देशी सोच थी. अपना इतिहास और अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे कतई पश्चिम से कोई सिद्धांत उधार लेकर व्याख्या करने को राज़ी नहीं थे. १९३२ में जर्मनी से पीएचडी की डिग्री प्राप्त करने के बाद लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंग्रेजी हटाने का जो आव्हान किया, उसकी गणना अब तक के कुछ इने-गिने आन्दोलनों में की जा सकती है. लोहिया ने पढ़ाई बेशक विदेश में की, लेकिन वे भारतीय जनता की नब्ज़ को भी बखूबी जानते थे.
शुरुआत में मैंने देश की राजनीतिक मजबूरियों या स्थितियों का जिक्र किया है, आशय यह है कि अब अवाम को समझना होगा कि वह अब खिलौना नहीं रही, आश्वासन से पेट नहीं भरता, ना ही इससे विकास संभव है. समाजवादी विचारधारा गांधी के आचार में, जे.पी. के विचार में और लोहिया के आचरण-संस्कार में दिखाई देती थी. गांधी-लोहिया-जे.पी. के विचार अब केवल किताबों के सफों तक सिमट गए हैं, दीमकें ज़रूर इनसे प्रेरणा लेती होंगी. पाश्चात्य संस्कृति के दवाब में लोहिया-गांधी का स्वदेशी अर्थशास्त्र बाज़ार के उपभोगवाद में दबकर रह गया है, इसी कारण से खादी अब फैशन के रैम्प का हिस्सा बनकर रह गयी है, नेताओं ने तो उसे कब का तज दिया है. गांधी अधनंगे इस लिए रहते थे क्योंकि बचा हुआ कपड़ा किसी जरुरतमंद के काम आ जाए, मगर पश्चिम के पिछलग्गुओं ने फैशन के रैम्प पर अधनंगे स्त्री-पुरुषों को खादी में लपेटकर अपनी जेबें गर्म करना और गांधी का मखौल बनाने को कारोबार का रूप दे दिया है. समाजवादी विचारधारा में स्पष्ट है कि- देश का विकास स्थानीय किसानों, बुनकरों, दस्तकारों, कामगारों और राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों से ही हो सकता है. समाजवाद में आर्थिक विकास की परिभाषा के अनुसार गरीबों और पूरी आबादी को काम देने से ही आर्थिक विकास संभव है, बहार से पूँजी लाकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विकास की जवाबदेही नहीं. दी जा सकती. देश के किसानों, बुनकरों, दस्तकारों, कामगारों ने हजारों वर्षों से काम करने की जिस कला-कौशल को हासिल किया है उसे विज्ञान की अत्याधुनिक उपलब्धियों के साथ जोड़कर विकसित करना होगा. भारत में समाजवादी आन्दोलन का इतिहास काफी पुराना है. शुरू के दिनों में देश और विदेश के समाजवादियों ने समाजवाद के सिद्धांतों को निरुपित करने के लिए समता मूलक समाज की कल्पना की थीऔर आदमी-आदमी की गैर बराबरी समाप्त करने के लिए केवल पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ वर्ग संघर्ष का नारा दिया था, बाद में डा. लोहिया ने भारत के दर्द को समझा कि यहाँ केवल पूँजी ही नहीं बल्कि जन्म के आधार पर जाती व्यवस्था और भूगोल के आधार पर क्षेत्रीय विषमता भी गैर बराबरी के मारक कारण हैं, इसी आधार पर समाजवादी आन्दोलन ने दलितों-पिछड़ों-महिलाओं और गरीबों-अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत को अंगीकार किया. हालांकि वर्तमान में समाजवाद ने पूरी तरह आधुनिक राजनीति का चोला ओढ़ लिया है. इस विचारधारा के 'सच्चे अनुयायी' गाँधी की करुणा, लोहिया का संषर्ष भूल चुके हैं, उन्होंने लोहिया जी की व्यवस्था परिवर्तन की सीख को सत्ता परिवर्तन समझ लिया है. संघटन की कीमत पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने समाजवाद का चेहरा विद्रूप कर दिया है. समाजवादियों की आधुनिक पौध वास्तव में पांच साल इंतज़ार करती नहीं दिखती.
मेरे बारे में :- पिछले २३ साल से पत्रकारिता जगत से जुड़ा हूँ. मध्यप्रदेश के तमाम अखबारों में विभिन्न पदों पर काम करने का अनुभव. राजनीति, स्वास्थ्य, खोजी पत्रकारिता में रूचि. वर्तमान में में दिल्ली में सक्रिय पत्रकारिता .
23.3.10
वर्तमान दौर में समाजवाद की सार्थकता
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