शिशिर की एक सुबह ,
मैं देखता हूँ पहाड़ के अंक से उठता हुआ सूरज
जो समेट रहा है यामिनी के साए को
अँधेरा दुबक गया है सरसों के पत्तों के बीच कहीं,
मैं देखता हूँ
सरसों के पत्तों के बीच जमे तुषार को
जो होना चाहता है आजाद ,उस ठिठुरन से जो
रच रही थी कोई साजिश हवा के साथ,
सूरज किरणों के बहलाने पर |
जो चीर आई हैं ,अँधेरे का कलेजा
वो लाली उतार तेज़ हो रही हैं,
तेज हो गया है पंछियों का कलरव भी और दौड़ बादलों की फलक पर |
अब मैं देखता हूँ फलक से लिपटी हुई एक धुंधली चादर ,
जिस ने मिटा दिया है रात के आँगन की रंगोलियों को ,
और इतराती धुंधली चादर पे किया पलटवार किरणों ने
कर दिया चादर तार-तार ,
और दो पहर तक सूरज डटा रहा तन के
क्षितिज मैं
अब सूरज संवार रहा है लटों को
जो उसने बिछायी थीं धरा पे सुखाने को ,
लपेटने लगा है सूरज अपने केश ललाट पे ,
जो पी रहे थे उस की चमक
हो गया है मद्धम
मुंद सा गया है अपने केशों से |
मैं देखता हूँ
सृष्टि के सौदागरों के द्वंद्व को,
पलटवार को,
और उन की नोंक-झोंक को
तुनक-मिजाजी को,
देखता हूँ करते हुए अठखेलियाँ
नन्हे शावकों की तरह |
देखता हूँ
एक शिशिर के दिन मैं
निढाल पड़े सूरज को और उस की छाती पे चढ़े अँधेरे को |
अब
फैलाए हैं यामिनी ने अपने डोने,
जो बढ़ रहे हैं द्रोपदी के चीर की तरह ,
मैं देखता हूँ ..
किसी पिकासो को,फलक पे उकेरते हुए चाँद और तारे
जो ठंडी हवा की मार से काँप रहे हों जैसे
और एक दरखत (दरख्त),जो खड़ा है नंगा किसी भिखारी की तरह ,
लुट गया जिसका सब यौवन ऐसी इक नारी की तरह |
मैं देखता हूँ
फलक के केनवास को
कि पड़ गए उसके रंग धुंधले अब,
सूरज खड़ा हो आँखे मसल रहा है और
फिर तैयार है तलवार लिए हुए ,
अँधेरे का कलेजा चीरने |
फिर वही सब
पलटवार -नोंक झोंक-और द्वंद्व
सृष्टि के दूतों का
फिर वही क्रम,वही प्रक्रिया वही,अंदाज़
मैं सोचता हूँ आखिर कब तक ?
कुलदीप गौड़
CHHORA HINDAUN KA
25.3.10
मैं सोचता हूँ आखिर कब तक ?
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