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24.3.10

हिन्दुओं को कायर मत बनाओ

रामनवमी पर विशेष: मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुणों को अपनाकर समाज और मानवजीवन के दोषों को जड़ से मिटा देने का संदेश दे रहे हैं संजय दीक्षित


रामनवमी फिर आ गई है। रामनवमी माने हिन्दुओं के आराध्य और आस्था के 'बीज बिन्दु भगवान श्रीराम का जन्मदिन। भगवान श्रीराम का जन्म हिन्दू समाज के लिए वह अद्भुत घटना कही जा सकती है, जिसका परिणाम हिन्दू समाज पर चोट करने वाली विनाशकारी ताकतों अर्थात रावण और उसके गिरोह के साथ ही अन्य दैत्य शक्तियों के सर्वनाश के रूप में सामने आया। और जब यह कार्य भगवान श्रीराम के हाथों संपन्न हुआ, उसके बाद हिन्दुओं की धरती 'भारतवर्ष सुख व शांति से भर गई और विकास का क्रम सकारात्मक रूप से बढ़ता चला गया।
समय के साथ स्थितियां बदलती चली गईं। वर्तमान दौर में भगवान श्रीराम का जन्मदिन हर हिन्दू आस्था के साथ मनाता है और धर्म, संस्कृति व समाज की शुचिता व शुद्धता को बनाए रखने की प्रार्थना भी करता है। प्रार्थना करने वालों में एक आम हिन्दू तो होता ही है, साथ ही वे सभी भी, जो विभिन्न क्षेत्रों में अगुवाई करते हुए हिन्दू धर्म व संस्कृति के प्रचार-प्रसार व बचाव के लिए सक्रिय हैं। इनमें राजनेताओं को भी रखा जा सकता है। साधू-संतों को भी और हिन्दुओं के नाम पर संगठन चलाने वालों को भी। सभी का दावा है कि सिर्फ वे ही हिन्दुत्व को बचाने में सक्रिय हैं, वे ही भगवान श्रीराम के वास्तविक भक्त है और सिर्फ वे ही हिन्दू धर्म व संस्कृति के कल्याण में सब कुछ भूलकर जुटे हुए हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? और क्या हिन्दू धर्म की दिव्य ज्योति उसी रूप में दीप्तमान हैं, जिस रूप में भगवान श्रीराम के काल में थी? नहीं, इन सभी सवालों का एकमात्र यही जवाब है। क्योंकि ऐसा हो रहा होता तो हिन्दू धर्म पर प्रहार करने वाली शक्तियां हावी होने की स्थिति में कभी नहीं आ पातीं और ऐसा हो रहा होता तो भारतीय राज व्यवस्था में हिन्दू संस्कृति व विचारधारा का क्षरण होना नहीं शुरू होता। विचार कीजिए। त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने भारतभूमि पर जन्म लिया था, उस समय आसुरी शक्तियां हावी हो चुकी थीं। आम जनमानस दैत्यों माने गुंडों, गिरोहबाजों, अपराधियों व स्वार्थी तत्वों से पीडि़त था और उनसे निपटने में स्वयं को असहाय समझ रहा था। ऐसे में भगवान श्रीराम आम जनमानस की पीड़ा को दूर करने के लिए प्रकट हुए। और जब अपने विकराल स्वरूप में आये तो हाथों में तीर-कमान उठाकर आसुरी शक्तियों के विनाश में जुट गए। यह स्थिति तब तक बनी रही, जब तक हिन्दू धर्म व संस्कृति पर चोट करने वाले तत्व और उनका मुखिया यानी रावण का वध नहीं हो गया। और उसके बाद हिन्दू समाज का वह शांत स्वरूप सामने आया जिसे 'रामराज का नाम दिया गया। 'रामराज वह समय था, जिस दौर में हिन्दुत्व की वह उदारवादी विचारधारा पूरी तरह जम्बूद्वीप में फैल गई थी, जिसका मूलमंत्र सहअस्तित्व या जियो और जीने दो कहा जा सकता है। अब देखिए, रामनवमी के दिन प्रतीकात्मक रूप में भगवान श्रीराम हर साल फिर प्रकट होते हैं। हिन्दुत्व के तथाकथित वाहक हर्ष और उल्लास के साथ भगवान श्रीराम का जन्मदिन भी मनाते हैं, लेकिन हिन्दू समाज पर चोट करने वालों, हिन्दू समाज को नष्ट करने की कोशिश करने वालों से टकराने में असहाय महसूस करते हैं। अब भगवान श्रीराम की तरह तीर-कमान उठाने का साहस, हिम्मत और शक्ति उन हाथों में नहीं रह गई है, जो हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार में लगे होने का दावा करते नजर आते हैं। भारत की स्थितियों का मूल्यांकन करने वाले यह भलीभांति समझ रहे हैं कि हिन्दू धर्म व संस्कृति पर चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। कहीं विचारधारा को हथियार बनाया गया है तो कोई जोर-जबरदस्ती व रक्तपात को प्रमुखता देकर हिन्दुओं को नष्ट कर रहा है और कोई अभावों व कष्टों को दूर करने के नाम पर हिन्दू धर्म व संस्कृति को बड़े सुनियोजित ढंग से सिकोडऩे में लिप्त हैं। हर कोई यही चाहता है कि भारतभूमि पर जन्म लेकर पनपने वाली हिन्दू संस्कृति, सभ्यता व समाज को किसी भी तरह नष्ट कर दो, तब कोई वैभवशाली 'भारत सामने नहीं होगा और न ही कोई ऐसा समाज उठकर खड़ा हो जाएगा जो हिन्दू राष्ट्र में रहने और जीने का दावा कर सकेगा।
हिन्दू संस्कृति व समाज पर आधुनिक समय में हो रहे हमलों के लिए किसी बाह्य ताकत व शक्ति को पूरी तरह दोषी ठहराना, वास्तविकता से आंखें मूंदने की तरह होगा। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि जब सुरक्षा करने वाले हाथ या ताकत कमजोर होकर शक्तिहीनता की ओर अग्रसर होती हैं, तो इसका पूरा लाभ 'शक्ति से भरपूर हाथों को ही मिलता है। कुछ ऐसा ही हिन्दू समाज के साथ हो रहा है। भगवान श्रीराम के नाम पर राजनीति करने वाले, सालों तक यही दोहराते रहे और दोहरा रहे हैं कि 'राम लला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। लेकिन भगवान श्रीराम के नाम पर ऐसे तत्वों ने सिर्फ अपने संकुचित व व्यक्तिगत हितों व स्वार्थों की ही पूर्ति की और करते ही जा रहे हैं। हिन्दू समाज व संस्कृति के प्रति इनकी आस्थाएं जनमानस के सामने खोखली साबित होकर 'विद्रुप वास्तविकता बन चुकी है। कुछ ऐसा ही हाल, उन संस्थाओं व संगठनों का है, जो संगोष्ठियों, चर्चाओं व बयानों के जरिये 'रामराज लाने का दिवास्वप्न दिखाते हुए अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी हुई है।
और तो और हिन्दू धर्म, संस्कृति व विचारधारा के पोषक कहा जाने वाला 'संत समाज भी सुविधाभोगी बनकर अपनी राह से भटक चुका है। वातानुकूलित आश्रमों, मठों एवं मंदिरों में रहने वाले ये संत धर्म के प्रचार-प्रसार के नाम पर महंगी व आलीशान गाडिय़ों में चलते हैं। विमानों से सफर करके बड़े-बड़े पंडालों में 'रामकथा का गुणगान करते हैं। संतई के नाम पर धंधा करते हैं और आम जनमानस को 'राम दरबार का विराट स्वरूप दिखाते हुए, अपनी इंद्रियों की भूख का भरण पोषण करते हुए पूरे हिन्दू समाज को कायर व नपुंसक बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं। ऐसे साधू-संतों से हिन्दू धर्म पर सुनियोजित रूप से हो रहे हमलों से निपटने की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती क्योंकि 'भगवान श्रीराम के नाम को इन्होंने अपनी कमाई का जरिया बना लिया और उस कमाई ने हाथों की शक्ति का क्षरण तो किया ही, वैचारिक रूप से इन्हें चलती फिरती लाश में तब्दील कर दिया है। और लाशें कभी भी धर्म, संस्कृति व समाज की न तो सुरक्षा कर पाती हैं और न ही प्रचार-प्रसार। 'राम दरबार के जिस विराट रूप को देखकर हिन्दू जनमानस भावविभोर हो जाता है, उस रूप को सामने लाने के लिए भगवान श्रीराम ने क्या नहीं किया। बचपन में युद्ध कला सीखने में पसीना बहाया, जवानी में तीर-कमान लेकर 14 सालों तक भटकते रहे और लड़ते रहे। सुख, शैय्या और शांति चाहकर भी हासिल नहीं कर पाए। कारण स्पष्ट है।
उनका लक्ष्य धर्म व संस्कृति पर हो रहे हमलों को रोकना था, हमलावरों को नष्ट करना था और सभी तरह की नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करना था। इसके पीछे उद्देश्य सिर्फ एक और सिर्फ एक ही था-हिन्दुत्ववादी समग्र समाज की स्थापना। यह वह समग्र समाज भी कहा जा सकता है, जहां हिन्दुओं व हिन्दू धर्म की उदारता को दूसरा अपनी 'चतुरता नहीं समझ सकता। एक बार फिर रामनवमी के दिन यह विचार करना ही होगा कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जिस धर्म की रक्षा के लिए हाथों में तीर-कमान ले लिया था, क्या उसी धर्म की रक्षा के लिए आज हाथों में शस्त्र उठाने की शक्ति बची है? क्या संस्कृति पर चारों तरफ से हो रहे हमलों को रोकने की सामथ्र्य बरकरार है? क्या हिन्दू धर्म व संस्कृति पर हो रही चोटों से उठने वाली पीड़ा को महसूस कर पा रहे हैं? या सर्वधर्म समभाव की आड़ में कायरता को बढ़ावा देकर हिन्दू समाज को 'नपंसुक बनाने की मुहिम छिड़ी हुई है।

3 comments:

Dev said...

लेखनी से हिन्दू समाज को जगाने का अत्यंत सराहनीय प्रयास है
रामनवमी की शुभकामनाये

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

जिस राम राज की कल्पना बापु ने की थी अब वो राम राज कहा, राम की पुजा मात्र दिखावा है समाज के लिये ।

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

जिस राम राज की कल्पना बापु ने की थी अब वो राम राज कहा, राम की पुजा मात्र दिखावा है समाज के लिये ।