Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

24.3.10

पत्रकार हैं या भ्रष्टाचार के देवता-ब्रज की दुनिया


साहित्य की दुनिया में उत्तर मुग़ल काल को रीतिकाल कहा जाता है.इस काल की अधिकतर साहित्यिक रचनाएँ विलासिता के रंग में डूबी हुई हैं.लेकिन उस काल का समाज ऐसा नहीं था.आम आदमी अब भी धर्मभीरु था और भगवान से डरनेवाला था.कहने का तात्पर्य यह कि सामाजिक रूप से वह काल रीतिकाल नहीं था.सिर्फ दरबारों में इस तरह की संस्कृति मौजूद थी.सामाजिक रूप से वर्तमान काल रीति काल है.ऋण लेकर भी लोग घी खाने में लगे हैं.नैतिकता शब्द सिर्फ पढने के लिए रह गया है.तो इस राग-रंग में डूबे काल में जब साधू-संत तक राग-निरपेक्ष नहीं रह पा रहे हैं तो फ़िर पत्रकारों की क्या औकात?पत्रकारिता का क्षेत्र भी गन्दा हो चुका है और उसे सिर्फ एक मछली गन्दा नहीं कर रही हैं बल्कि ज्यादातर मछलियाँ कुछ इसी तरह के कृत्यों में लगी हैं.हिंदुस्तान, पटना के अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान मैंने भी ऐसा महसूस किया.ग्रामीण या कस्बाई स्तर के लगभग सभी संवाददाता पैसे लेकर समाचार छापते हैं.कोई भी अख़बार इसका अपवाद नहीं है.यहाँ तक कि एक बार मैंने भी जब एक खबर छपवाई तो मेरे ही मातहत काम करनेवाले लोगों ने मुझसे महावीर मंदिर, पटना के प्रसाद की मांग कर दी.मैंने उनकी इस फरमाईश को पूरा भी किया और पिताजी के हाथों अपने हाजीपुर कार्यालय में प्रसाद भिजवाया.मुझे पहले से पता था कि पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या कुछ होता है इसलिए मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ, हाँ दुःख जरूर हुआ और इससे भी ज्यादा दुःख की बात तो यह है कि ऐसा सिर्फ ग्रामीण या कस्बाई स्तर पर ही नहीं हो रहा है महानगर भी पेड न्यूज़ की इस बीमारी से बचे हुए नहीं हैं.मैं अपने एक ऐसे पूर्व सहयोगी को जानता हूँ जो जब भी किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाते तो उनका पूरा ध्यान वहां मिलनेवाले गिफ्ट पर रहता और वे गिफ्ट को रखने पहले घर जाते तब फ़िर ऑफिस आते.आज का युग त्याग और आदर्शों का युग नहीं है यह तो रीतिकाल है फ़िर हम सिर्फ पत्रकारों से नैतिकता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?लेकिन फ़िर सवाल उठता है कि समाज को दिशा देने का भार जिनके कन्धों पर है कम-से-कम उनसे तो समाज कुछ हद तक ही सही नैतिक होने की उम्मीद तो कर ही सकता है.आज कई पत्रकारों पर वेश्यागमन के आरोप भी लग रहे है तो हमारे कई भाई नई तितलियों के शिकार के चक्कर में लगे रहते हैं.एक वाकया मुझे इस समय याद आ रहा है.एक वरिष्ठ पत्रकार जिनका स्नेहिल होने का अवसर मुझे मिला है ने अपने एक पत्रकारीय शिष्य के यहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में नवागंतुक एक छात्रा के लिए सिफारिश की.छात्रा को टी.वी. चैनल में नौकरी मिल गई.कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा.एक सप्ताह बाद नौकरी दिलानेवाले ने छात्रा से कहा कि उन्हें शिमला जाना है और वह भी अकेले.अकेलापन बाँटने के लिए तुम्हें भी साथ चलना होगा.आमंत्रण में छिपा संकेत स्पष्ट था.बॉस उसके देह के साथ खेलना चाहते थे.वह घबरा गई और उसने गुरूजी से बात की.गुरूजी ने अपने पुराने शिष्य को खूब डांट पिलाई और छात्रा को नौकरी छोड़ देना पड़ा.अब ऐसे पत्रकारों को अश्लील उपन्यास की तरह अपवित्र न समझा जाए तो क्या समझा जाए?यह छात्रा तो बच गई लेकिन कितनी छात्राएं बचती होंगी?वर्तमान काल के ज्यादातर पत्रकारों का सिर्फ एक ही मूलमंत्र है पैसा कमाओ और इन्द्रिय सुख भोगो मानो पत्रकार नहीं पौराणिक इन्द्र हों.हमारे अधिकतर पत्रकार पत्रकारिता कम चाटुकारिता ज्यादा करते हैं.अपने वरिष्ठ सहयोगियों का सम्मान करना बुरा नहीं है और ऐसा करना भी चाहिए लेकिन इतना नहीं कि उसकी श्रेणी बदल जाए और वह चापलूसी बन जाए.हमारे कई मित्र तो इस कला में इतने पारंगत हैं कि वे इसकी मदद से संपादक तक बन गए हैं.हम मानव हैं और हमें बिना पूंछ के कुत्ते की तरह का व्यवहार शोभा नहीं देता.अंत में मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि पत्रकारिता में भी रीतिकाल आ चुका है.लेकिन पत्रकारों के दायित्व समाज के बांकी सदस्यों से अलग और ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.हमें इसलिए तो चौथा स्तम्भ कहा जाता है.इसलिए हम यह कहकर अपने कर्तव्यों से नहीं भाग सकते कि हम भी समाज का ही एक भाग हैं.बेशक हम समाज का एक हिस्सा हैं लेकिन हमारा काम चौकीदारों जैसा है जिसका काम है समाज को चिल्ला-चिल्ला कर सचेत करते रहना और कहते रहना-जागते रहो. न कि खुद ही सो जाना या विलासिता में डूब जाना.

2 comments:

कौशलेन्द्र said...

aapne bilkul sahi kaha ki patrakarita me reetkal aa chuka hai , mai sheedhe taur par to is paishe se nahi juda hun par dur se hi sahi mahsus jarur kiya hai ki aapki bat kai maynon me behad khari sunai padti hain, par mai aapke dwara is patraki jagat se jude logon se aahwahan karta hun ki AB BAS......

Sunil Sharma said...

‘‘पत्रकार हैं या भ्रष्टाचार के देवता’’ पढ़ा आपके कथन में काफी दर्द है मैं भी यह महसूस कर सकता हूँ हर जगह आज पत्रकारिता के क्षेत्र में यह सब देखने को मिल रहा है। इसके लिये कुछ करना चाहिये लेकिन इसके परे भी विचार करने की आवयश्कता है कि आज भी छोटे से कस्बे से लेकर जनपद तक के पत्रकारों का किस प्रकार से शोषण हो रहा है सब मूक बने यह सब सहन कर रहे हैं। आखिर कब तक, आज पत्रकारों की कलम कहां तक स्वतन्त्र है। लगातार इस क्षेत्र में वढ़ती युवाओं की भींड़ को क्या दिशा मिल पायेगी। या वह भी भ्रष्टाचार के दलदल में फंस कर रह जायेंगे।