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27.3.10

अर्थ आवर मनाने के लिए बिजली तो दो सरकार....

(उपदेश सक्सेना)
पश्चिम की नक़ल करना हमारा शगल बन गया है. इस नक़ल के चक्कर में हम अपनी औकात तक भूल जाते हैं, हमें यह तक भान नहीं रहता कि पश्चिम के देशों के लोगों का जीवन स्तर हमसे कितना उन्नत है. हम यह भी याद नहीं रखते कि "पश्चिम पर ज्यादा निर्भरता इस लिए भी उचित नहीं क्योंकि वहीँ जाकर तो सूर्य अस्त होता है". यहाँ मेरा उद्देश्य पश्चिम की मुखालफत करना नहीं, बल्कि अपनी औकात देखने के लिए हिन्दुस्तानियों को जगाना है. अर्थ आवर निश्चित रूप से मनाया जाना चाहिए, मगर इसकी सार्थकता भारत में तभी हो सकती है जब यहाँ बिजली तो हो. इस अभियान के सौ से ज्यादा समर्थक देशों के पांच करोड़ लोगों में हमारी गिनती केवल संख्या बढाने वालों की हो सकती है.वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर के इस अभियान में २७ मार्च को रात ८.३० से ९.३० तक बिजली बंद रखने की अपील की गई है. अब जिनके यहाँ बिजली है उनके लिए अर्थ आवर मानना जायज है, मगर वे लोग इसमें कैसे अपनी भागीदारी निभाएं जिनके लिए "अर्थ आवर" रोजाना का 'अर्थ डे' जैसा होता है.आंकड़ों पर गौर करें तो भयावहता सामने आती है. विश्व की १,६३,४० लाख की आबादी के पास बिजली नहीं है, इनमें भारत का नंबर पहला है, जहां ५७ करोड़ लोग आज भी बिजली से महरूम हैं. यानी विश्व की बिना बिजली वाली आबादी का ३५.४४ फ़ीसदी, बात आधी आबादी की है, बावजूद सरकारों के लिए यह तथ्य चिंताजनक नहीं लगता.
मध्यप्रदेश जैसे विकसित हो रहे राज्यों में हालात चिंताजनक हैं. वहां हमेशा बिजली आने का इंतज़ार होता रहता है. सरकार अपनी जिम्मेदारी केवल गाँवों तक वह भी कहीं-कहीं बिजली के खम्भे लगवाकर यह समझ कर पूरी कर लेती है कि वहां बिजली पहुँच गई. बिजली गुल होने के पीछे सरकारी बहाने भी रटे-रटाये होते हैं, शहरों में बिजली कटौती का कारण खेती के लिए बिजली देना बताया जाता है, गाँवों में बिजली कटौती को उद्योगों-कारखानों के लिए ज़रूरी बताया जाता है. बिजली के करंट को खिलौना बनाकर सरकारों ने खूब खेला. कभी गरीबों को मुफ्त बिजली देकर उनके वोट खरीदे तो कभी किसानों को ऐसे ही प्रयासों से भरमाया. बिजली को सभी सरकारों ने बाप का माल समझ कर खूब लुटाया, और अब जब बिजली है नहीं तब चले हैं अर्थ आवर मनाने. आज़ादी के बाद ६३ साल में बिजली का उत्पादन कितना बढ़ा या लाइन-लॉस रोकने में कितनी सफलता मिली इन सब आंकड़ों के झंझटों से मुक्त होकर सरकारों ने शायद यह मान लिया है कि जनता को कैसे सब्जबाग दिखाकर बहलाया जा सकता है.अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों में एकाध घंटे के लिए बिजली गुल हो जाने की ख़बरों को भारतीय मीडिया सुर्ख़ियों में दिखाता है, मगर इसी भारत में जहां "देश की आत्मा" (गाँव) ६३ साल बाद भी अँधेरे में डूबी हैं उनकी कोई सुध नहीं लेता. इस पर भी सरकार की यह अपील कितनी हास्यास्पद लगती है कि अर्थ आवर के दौरान दिल्ली वाले कैंडल लाइट डिनर करें. दिल्ली की बड़ी आबादी मजदूर तबके की है. इस वर्ग के पास हर शाम खाने की चिंता बनी रहती है, और सरकार बिजली बचाने के लिए अपनी अपील में भूख का मज़ाक उड़ा रही है. जिस कैंडल लाईट डिनर की बात मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने की है, वह बड़े होटलों में कई हज़ार रुपये का पड़ता है, गरीब तबका तो हर दिन फाकाकशी का "डार्क डिनर" वैसे भी करता ही है. बिजली के साथ-साथ पानी बचाना भी वक़्त की ज़रुरत है.
लेखक पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से पत्रकारिता जगत से जुड़े हैं.updesh.saxena@gmail.com

3 comments:

उपदेश सक्सेना said...

Bahut Badhiyaa. sarkari tantra par karara vyang, Badhai.

सम्वेदना के स्वर said...

उपदेश जी, आपका उपदेश बहुत अच्छा लगा.. हमने भी यही भावना व्यक्त करने की चेष्टा की है..
samvedanakeswar.blogspot.com

tum to fir ek haqeeqat ho......... said...

bahut khub...