श्रीमदभगवद्गीता में भक्ति की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्ति सहजता से करो न कि हठपूर्वक.जो व्यक्ति मेरे नाम पर शरीर को कष्ट देता है वह भक्त है ही नहीं वह दम्भी या हठयोगी है.उन्होंने कहा है कि कर्त्ता भी मैं ही हूँ,कारण भी मैं और कर्म भी मैं ही हूँ.मैं ही आदि हूँ और मैं ही अंत भी.इसलिए सबकुछ मुझे समर्पित करते हुए निष्काम कर्म करो.लेकिन दुनिया के विभिन्न धर्मों में प्राचीन काल से ही भगवान को खुश करने के लिए शरीर को कष्ट देने की परंपरा रही है.कहीं-कहीं तो लोग शरीर में लोहे की सींक भोंक कर खुद को लहू-लुहान भी कर डालते हैं तो कहीं आग पर नंगे पांव चलते हैं.जैन धर्म के मुनियों में उपवास द्वारा प्राण-त्यागा जाता है.बिहार में इन दिनों आस्था का महापर्व छठ मनाया जा रहा है.आज खरना है.इस व्रत में व्रती जितना अपने शरीर को कष्ट देता या देती है उतना बिहार में किए जानेवाले अन्य किसी व्रत में नहीं.शरीर को कष्ट देना योग का विषय है.योगी इसके माध्यम से समाधि पाने का प्रयास करता है.लेकिन भक्ति तो मधुर भाव से उत्पन्न होती है.इसमें शक्ति प्रदर्शन का कोई महत्त्व नहीं.उल्टे भक्त जितना विनीत होता है उसे उतनी ही अधिक ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है.कुम्भ मेले में आनेवाले कई योगी इसलिए आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं कि उनमें से कईयों ने वर्षों से अपने एक हाथ को ऊपर उठा रखा होता है और जो सूखकर कांटा हो चुका होता है.उनमें से कई सिर्फ पानी पीकर जी रहे होते हैं तो कई सिर्फ मिर्ची या कोई अन्य बेस्वाद चीज खाकर.ऐसा करके उन्हें क्या प्राप्त होता है ये तो वही जानें.संत कबीर ने भक्तिमार्ग अपनाने से पहले योग द्वारा ईश्वर प्राप्ति का भी प्रयास किया था.उन्हें ईश्वर का दर्शन भी मिला लेकिन समाधि से बाहर आते ही एकात्म भाव नष्ट हो जाता था.तब कबीर ने कहा था-गगना-पवना विन्से दोनों कहाँ गया योग तुम्हारा और भक्ति की ओर आकर्षित हुए थे.भक्ति में आनंद नष्ट नहीं होता,समय के साथ प्रगाढ़ होता जाता है,उसमें अभिवृद्धि होती जाती है.भक्त प्रवर रामकृष्ण परमहंस का भी कहना था कि भगवान की भक्ति सहज भाव से करो,कुछ मांगो मत.तुम्हें क्या चाहिए वह तुमसे बेहतर जानता है.भगवान की तुलना उन्होंने बिल्ली से की है जो अपने बच्चे को मुंह में दबाये घूमती रहती है.उसके बच्चे को गिरने का भय नहीं होता.वह अपनी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त होता है.छठ महाव्रत में नहा-खा के दिन तक सबकुछ सामान्य होता है.व्रती सेंधा नमक में बनी सब्जी नहाने के बाद खाता है और उसके बाद दिनभर वह चाहे जितनी बार खा सकता है.भोर में चाय-पानी भी पी सकता है.दूसरे दिन जिसे खरना कहते हैं व्रती रात में पूजा करने करने के बाद दिन भर में सिर्फ एक बार खाता है.इस दिन वह नमक नहीं खा सकता,उसे सिर्फ रोटी और गुड की बनी खीर खाने की ही अनुमति होती है.भोर में जितना चाहे पानी पी सकता है.उसके बाद उसे २४ घन्टे से भी ज्यादा समय तक निर्जल उपवास करना होता है.इस दौरान उसे शाम में डूबते हुए और सुबह में उगते हुए सूर्य को अर्क अर्पित करने के लिए २-३ घन्टे तक कमर-भर नदी या तालाब के ठन्डे पानी में खड़ा भी होना होता है.एक तो लम्बा उपवास और उस पर ठन्डे पानी में खड़ा रहना.कई व्रतियों की इस दौरान तबियत बिगड़ जाती है और कईयों को हालात गंभीर होने पर अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है.जान न भी जाए तो स्वास्थ्य पर बुरा असर तो पड़ता ही है.कहा गया है-शरीरमाद्यं धर्म खलु साधनं.हमारे लिए शरीर भगवान की दी हुई विभूति है.चूंकि हम सारे क्रियाकलाप इसी के माध्यम से करते हैं इसलिए इसका समुचित रखरखाव करना हमारा कर्तव्य है.साथ ही भक्ति तो श्रद्धा और विश्वास से की जाती है,मन और ह्रदय से की जाती है.इसमें शरीर को घसीटने का क्या मतलब?जब कोई शारीरिक कष्ट में रहेगा तो भगवान में मन को एकाग्र कैसे कर पाएगा?मेरी माँ पिछले १४-१५ सालों से लगातार शुक्रवार व्रत कर रही थी.धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ स्वास्थ्य गिरता जा रहा था.घर के सभी लोग मना भी कर रहे थे लेकिन वह जिद पर अड़ी थी.कुछ महीने पहले एक शुक्रवार को उसकी तबियत बहुत बिगड़ गई और न चाहते हुए भी व्रत को तोडना पड़ा.भक्ति तो आनंद का विषय है,निरे आनंद का.फ़िर हम क्यों शारीरिक कष्ट सहते हैं?हम सभी भिखारी हैं.हम भगवान से हमेशा कुछ-न-कुछ मांगते रहते हैं और रिश्वत के रूप में ऐसा-वैसा करने का लालच भी उन्हें देते रहते हैं.चूंकि ईच्छाएं अनंत हैं इसलिए यह सिलसिला भी अनवरत चलता रहता है.कुछ महिलाऐं तो सप्ताह के सातों दिन व्रत करती हैं और स्वास्थ्य का भट्ठा बैठा लेतीं हैं.जबकि हम-आप सब लोग जानते हैं कि किसी को भी समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ भी,कभी भी नहीं मिलता.मेरी एक जमीन जो कोढ़ा (कटिहार) में है के कागजात रजिस्ट्री के कुछ ही दिनों बाद चोरी हो गए.मुझे लोगों ने पूर्णिया रजिस्ट्री ऑफिस से पता लगाने की सलाह दी.मैं जब पहली बार इस काम के लिए पूर्णिया जा रहा था तो माँ ने गणेशजी का जयघोष किया और बोली कि गणपति की कृपा से बिगड़े काम बन जाते हैं इसलिए कागजात भी मिल जाएँगे.लेकिन दिन-पर-दिन बीतते रहे और रोजाना रवानगी के समय गणेश-स्मरण भी चलता रहा लेकिन कागज को नहीं मिलना था सो नहीं मिला.इसी प्रकार मैंने कई संतानविहीन दम्पतियों को मंदिरों के चक्कर काटते हुए देखा है और इसी चक्कर में बूढ़े होते भी देखा है.मेरे एक नाना ओझागिरी करते थे.एक दिन जब वे दरवाजे पर नहीं थे तभी एक महिला आई उनके भाई को ही ओझा समझ कर झाडफूंक करने को कहा.वह महिला निस्संतान थी.उन्होंने भी मजाक में थोड़ी-सी भभूत उठाई और उसे देते हुए कहा जा तुझे बेटा होगा.एक-डेढ़ साल बाद वह महिला गोद में बच्चा लिए आई और भगत नाना के भाई को दक्षिणा देने लगी और बार-बार आभार प्रकट करने लगी.भगत नाना भी उस समय वहीँ पर थे.महिला के जाने के बाद उन्हें जब असलियत मालूम हुई तो वे भी हमारे साथ ठहाका लगाए बिना नहीं रह सके.कहने का मतलब यह कि जीवन में सबकुछ संयोग है,इत्तिफाक.रामचरित मानस में दशरथ के निधन के समय वशिष्ठ ने भरत को सांत्वना देते हुए कहा है-सुनहूँ भरत भावी प्रबाव,बिलखी कहेऊ मुनिनाथ| हानि-लाभ जीवन-मरण जश-अपजश विधि हाथ||इस दृष्टि से भी भक्ति में शरीर को सधाने की कोई आवश्यकता नहीं.भगवान प्रेम करने की चीज हैं और प्रेम में मोलभाव नहीं होता.जहाँ तक छठ का सवाल है तो विज्ञान द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि हम सभी सूर्य के अंश हैं और सृष्टि के अंत में पृथ्वी सूर्य में ही विलीन हो जाएगी.धरती पर जीवन भी बिना सूर्य के संभव नहीं.वे एकमात्र प्रत्यक्ष भगवान हैं.उनकी भक्ति करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन उसमें सहजता होनी चाहिए.अगर इस सूर्यपूजा को सरल बना दिया जाए तो वे लोग भी इसे कर पाएँगे जो नहीं सकने के डर से इसे नहीं कर पाते.गीता में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मानव अपने कर्मों के फल से किसी भी प्रकार नहीं बच सकता,उसे उसके कर्मों का फल मिलकर ही रहता है-योगक्षेमं वहाम्यहम.तुसली बाबा ने भी रामचरितमानस में कहा है-कर्म प्रधान विश्व करि राखा जो जस करहिं सो तस फल चाखा.तब फ़िर वेवजह शरीर को कष्ट देने के बजाए हम अपने कर्मों को क्यों न शुद्ध करें?व्रत भर तो हम बाह्य शुद्धता का खूब ख्याल रखते हैं लेकिन आतंरिक शुद्धता के अभाव में बांकी के सालभर फ़िर कर्म-अकर्म में लिप्त रहते हैं.अशुद्ध कर्म करके अशुद्ध मन (चित्त) से चाहे हम भगवान के नाम पर कितना ही कष्ट क्यों न सह लें,हासिल कुछ नहीं होनेवाला.इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि महापर्व छठ में केवल भक्ति को रहने दें,विशुद्ध आनंदमय भक्ति को और इसमें से हठयोग के तत्व को अलग कर दें.
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