Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

24.11.10

पंचायत चुनाव या लोकतांत्रिक घोटाला

उत्‍तर प्रदेश के संदर्भ में पंचायती राज की जो धज्जियॉं उडायी जा रही हैं,वे शायद ही कहीं हो रहा हो।पंचायती राज का सपना यहॉं कभी साकार नहीं हो सकता।त्रिस्‍तरीय पंचायतों का क्‍या हाल हो रहा है,क्‍या हम सब नहीं जानते़।ऐसा सच है कि यदि इन्‍हीं स्‍तम्‍भों पर भारतीय लोकतंत्र के राष्‍ट्रीय स्‍वरूप का किला तैयार होगा तो वह कभी भी भरभरा कर गिर जायेगा।और हम सब बैठकर मातमपुर्सी करेंगें।क्‍यों, मेरे इन बयानों को निगेटिव एप्रोच कहकर खारिज किया जा सकता है।जरा नजर डालिये,हाल ही में सम्‍पन्‍न हुये गॉंवों में चुनावों पर।ग्राम पंचायत सदस्‍यों के चुनाव में गॉंव के लोगों ने कोई खास भागीदारी नहीं की।इसलिये अधिकांश जिलों में दो तिहाई पंचायतें गठित नहीं हो पायीं।इतनी अधिक तादाद में ग्राम पंचायत सदस्‍यों की सीटों का खाली रहने का मतलब साफ है कि पंचायती राज में इनकी कोई भूमिका नहीं रह गयी है।जिन गॉव में जितने सदस्‍य चुने गये हैं,उनका आवेदन निर्वाचित होने वाले प्रधानों ने किया था,उनका आवेदन का खर्च इन्‍होने ही वहन किया।यही कारण है कि सरकार को ग्राम सदस्‍यों के निर्वाचन के लिये नये सिरे से प्रयास करना पडा।इतने के बाबजूद फिर भी इनकी सीटें खाली रह गयीं है।यदि उपप्रधान का पद रहता या नरेगा में इनकी कोई भूमिका रहती तो उपरी कमाई की हिस्‍सेदारी के लिये इनका चुनाव भी महतवपूर्ण होता।अब ग्राम प्रधान के चुनाव की तस्‍वीर देखिये।किसी भी प्रधान पद के लिये अधिकतम खर्च की सीमा तीस हजार रूपये थी।लेकिन इसका उल्‍लंघन हर गॉव में हुआ।कहीं कोई मशीनरी ऐसी नहीं थी,जो इस खर्च पर नियंत्रण रखती।मुझे रह-रहकर पूर्व चुनाव आयुक्‍त टी,एन,शेषन याद आ रहे थे।लागों ने प्रतिद्धंद्धियों को चुनावों में बैठाने व हराने के लिये रूपये व बाहुबल का जबरदस्‍त खेल खेला।गॉवों में शराब के नाले बह रहे थे।नकली शराब व नकली मिठाई का मतदाताओं को रिझाने के लिये खुलकर उपयोग हो रहा था।मतदान से एक दिन पहले रूपये से तकरीबन हर गॉव में वोट खरीदे गये।वोटर ने अपने वोट की कीमत चुप रहकर बाजार भाव की तरह वसूली।बडे गॉंवों में एक-एक उम्‍मीदवार ने पॉंच से दस लाख रूपये तक खर्च किये।अपने समर्थकों को ग्राम सदस्‍य बनाने का व्‍यय भी इन्‍हीं के द्धारा किया गया।ऐसा करना भी प्रधानों को फायदे का सौदा ही नजर आया।प्रधान पद के उम्‍मीदवारों का मानना है कि मिड-डे-मील की राशि व नरेगा की कमाई से इस खर्च की भरपायी बहुत जल्‍दी की जा सकती है।अब तो उनहें अतिशीघ्र हर गॉव में एक कम्‍प्‍यूटर व आपरेटर सहित एक कार्यालय भी मिलने की भी आशा है।राशन कोटे की कमाई का अनुमान लगाना आसान है।इसमें हिस्‍सेदारी नीचे से लेकर उपर तक हर स्‍तर तक जाती है।एक महीने का तेल व राशन तो बंटता है,लेकिन अगले महीने का पूरा कोटा ब्‍लैक कर खुले बाजार में बेच दिया जाता है।अब क्षेत्र पंचायत सदस्‍य या बी,डी,सी, के चुनावी समर का हाल जानिये।वैसे यह पद कोई खास महत्‍व नहीं रखता,लेकिन ब्‍लाक प्रमुख के निर्वाचन में यह अहमियत रखता है। ब्‍लाक प्रमुख पद जीतने वाले उम्‍मीदवारों ने कई-कई जगह से नामांकन दर्ज किये,ताकि अपने पक्ष में अन्‍य प्रतिद्धंद्धियों को बैठने के लिये रेट का मौल-तौल किया जा सके।साधारण तौर पर एक बी,डी,सी,मेम्‍बर की कीमत लगभग एक से डेढ लाख रूपये लग रही है। मेरे अनुभव में कई बार से ब्‍लाक प्रमुख या जिला पंचायत अध्‍यक्ष का पद जीतने के लिये इन सदस्‍यों को खरीदा जाता है,बन्‍धक बनाया जाता है।उन्‍हें अपने पक्ष में वोट देने के लिये बढिया होटलों में बन्‍धक बनाया जाता है,वहॉ उन्‍हें हर तरह से ऐश करने के साधन दिये जाते हैं।यह हमेशा से होता आया है।लेकिन किसी की हिम्‍मत नहीं कि इन्‍हें रोक पाये।जिला पंचायत सदस्‍यों की भी अहमियत सिर्फ इतनी ही है कि वे रूपये लेकर अघ्‍यक्ष के निर्वाचन में वोटिंग करें।इस समय एक जिला पंचायत सदस्‍य की कीमत दस से बीस लाख रूपये के बीच चल रही है। पैसे देकर निर्वाचित होते ही जिला पंचायत अधक्ष अपने मेम्‍बरर्स को दूध में से मक्‍खी की तरह निकाल फेंकता है।ब्‍लाक प्रमुख या जिला पंचायत अध्‍यक्ष अपने क्षेत्र में विकास हेतु आने वाले क्रमश: पॉच से दस करोड रूपये में से दस फीसदी हिस्‍सा ईमान का लेते हैं।इन पदों का संवैधानिक रूतबा इन्‍हें सूद के रूप में मिलता है,जो बहुत अधिक है।वास्‍तव मे यू,पी, में चुनाव में सफल होने के ये फंडे हर बार अपनाये जाते हैं। एम,एल,सी, स्‍थानीय निकाय के चुनाव में भी इसी तरह प्रधान व बी,डी,सी, मेम्‍बर की कीमत क्रमश: पचास हजार से एक लाख रूपये तक लगती है।हम अपना मुंह खोलकर,आंखे बंद कर यह सब देखने के लिये मजबूर होते हैं।हम उम्‍मीदकरते हैं कि कोई तो हो जो इस बीमार होते जा रहे लोकतंत्र का इलाज करने के लिये तैयार हो।मीडिया को तो गाली देने का मन करता है,उसका काम चापलूसी करना रह गया है।मीडिया का पूरा जोर इस बात पर रहता है कि कौन पार्टी कितने पद जीतने में सफल रही।चुनाव में जो तरीके इस्‍तेमाल हुये वो कितने जायज थे,इस बात पर कोई मंथन नहीं होता है।न्‍यायपालिका कहती है,कि कोई हमसे शिकायत करे,वो भी ऐवीडेंस के साथ तारीखों पर कोर्ट में ऐडियां रगडे।तब हो सकेगा तो कार्यवाही के नैतिक आदेश देंगें।अब इस पूरे कार्यों को चुनाव कहा जाना सही है,या संवैधानिक घोटाला।यह भारत की रीढ कहे जाने वाले गॉवों में पंचायती राज का असली सच है।सबसे जड में लोकतंत्र का यह हाल है,तो राष्‍ट्रीय राजनीति का क्‍या स्‍वरूप होगा,हम समझ सकते हैं।इसमें विकास की बात तो पीछे छूट जानी अनिवार्य है।

No comments: