इस युग के बारे में लोगों के विचारों में पर्याप्त मतभिन्नता है.कुछ लोग मानते हैं कि यह युग कलियुग है तो कुछ लोग इसे भ्रष्ट युग कहते हैं.कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इसे स्वर्ण युग मान रहे हैं.लेकिन मेरी मानें तो यह युग केवल और केवल परन्तु का युग है.मैं अपने-आपको परन्तु के चक्रव्यूह में घिरा हुआ पा रहा हूँ.चाहे मेरा व्यक्तिगत मामला हो या फ़िर मेरे राज्य या देश से सम्बंधित.होना कुछ और चाहिए और होता कुछ और ही है क्योंकि यह परन्तु वैसा नहीं होने देता.मेरे जीवन,मेरे देश और मेरे राज्य में बहुत-कुछ अप्रिय घटित होता रहा है.उन्हें रोका भी जा सकता था या अब भी रोका जा सकता है परन्तु 'परन्तु' हर जगह आकर ऐसा होने नहीं देता.बिना परन्तु के मेरा कोई वाक्य पूरा होता ही नहीं.बचपन के १५-१६ का जो समय गाँव में गुजरा उसे मैं आज भी अपने जीवन का सबसे अच्छा समय मानता हूँ.आज भी उन्ही क्षणों को याद कर जी रहा हूँ और चाहता हूँ कि फ़िर से गाँव में ही रहूँ परन्तु कई प्रश्न आकर मुझे घेर लेते हैं जैसे अभिमन्यु को सात-सात महारथियों ने घेर लिया था.जैसे-बच्चे कैसे गाँव में पढेंगे क्योंकि गाँव के सरकारी स्कूल में अब पढाई का स्तर काफी गिर चुका है,गाँव में बिजली नहीं है वगैरह-वगैरह.सबसे पहले तो गिरते हुए घर का पुनर्निर्माण करवाना पड़ेगा.गाँव में तो फ़िर भी घर है यहाँ शहर में २० सालों से किरायेदार की जिंदगी बीता रहा हूँ.पहले ईमानदार होने पर पारितोषिक मिला करता था अब दण्डित-अपमानित होना पड़ता है.इन बीस सालों में १० मकान बदल चुका हूँ और हर जगह से अपमानित होकर निकला हूँ.पिताजी कॉलेज में प्रधानाचार्य थे.भ्रष्ट होते तो कब का अपना घर बन गया होता परन्तु वे बदलते युगधर्म से तनिक भी प्रभावित नहीं हुए और ईमानदारी को ही सबसे बड़ी पूँजी मानते रहे जबकि इस परन्तु के युग में तो पूँजी के अलावा कोई पूँजी है ही नहीं.यहाँ भी परिणति परन्तु है.मैं आज भी बेरोजगार हूँ तो अपनी कबीराना तबियत के कारण.वो कहते हैं न कि 'कुछ तबियत ही मिली है ऐसी चैन से जीने की फ़ुरसत न हुई, जिसको चाहा उसे अपना न सके जो मिला उससे मुहब्बत न हुई'.मैं भी पिताजी की ही तरह ईमानदार और खुद्दार किस्म का इंसान हूँ.मुई ईमानदारी के कारण रामविलास पासवान के रेलमंत्री रहते समय रेलवे में घूस देकर जा नहीं सका और निगोड़ी खुद्दारी के चलते अब प्रेस की नौकरी नहीं कर पा रहा हूँ.वैसे कायदे से मुझे सिविल सेवा में होना चाहिए था परन्तु २००३ के अक्तूबर में डेंगू मच्छर ने मुख्य परीक्षा का अंतिम पेपर नहीं देने दिया.एक छोटे-से मच्छर ने मेरी जिंदगी के आगे सबसे बड़ा परन्तु खड़ा कर दिया.इससे पहले मैं अगर इलाहाबाद जाते समय मुगलसराय स्टेशन पर टाइप मशीन लिए गिरता नहीं तो आज केंद्र सरकार का तृतीय वर्ग का ही सही कर्मचारी होता परन्तु होनी ही ख़राब थी.इसी तरह अगर १९९९-२००० में बोकारो जाते समय मेरी बस ख़राब नहीं हुई होती तो मैं बिहार सरकार में शिक्षक होता परन्तु बदमाश एक बार नहीं तीन-तीन बार ख़राब हुई और मैं परीक्षा केंद्र पर तब पहुंचा जब परीक्षा समाप्त हो रही थी.इसी तरह मेरा राज्य बिहार भी परन्तु का शिकार होता रहा है.आजादी के समय यह भारत का दूसरा सबसे धनी राज्य था परन्तु बाद में केंद्र द्वारा बरते गए भेदभाव के कारण पीछे और पीछे होता चला गया.फ़िर भी १९९० तक वह कई अन्य राज्यों से आगे था परन्तु लालू के आने के बाद सब बर्बाद हो गया और यह प्रत्येक मामले में पीछे से नंबर १ हो गया.ऐसा भी नहीं है कि हम लालू-राबड़ी के १५ सालों के शासन में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे परन्तु हमारे द्वारा खिलाफ में मतदान करने के बावजूद वे सत्ता में बने रहे.फ़िर सत्ता बदली परन्तु तब तक राज्य का बंटवारा हो चुका था और बिहार में बतौर लालू सिवाय लालू,बालू और आलू के कुछ नहीं बचा था.मतलब कि जब मौके थे तब कदम नहीं उठाया गया और जब कुछ हद तक जिम्मेदार शासन आया तो साधन ही नहीं थे.इसे कहते हैं गंजे के हाथ में कंघी का आना.अब अपने भारत को लें तो अगर नेहरु-पटेल-प्रसाद आदि कांग्रेसी नेताओं ने गलतियाँ नहीं की होती और जिन्ना ने हठधर्मिता नहीं दिखाई होती तो न तो देश में मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा सांप्रदायिक संघर्ष ही होता और न ही देश का बंटवारा ही होता परन्तु ऐसा हुआ.भारत पहले १९४७ में पाकिस्तान से और फ़िर १९६२ में चीन से हारा और लाखों वर्ग किलोमीटर जमीन से हाथ धो बैठा.इस स्थिति से भी बचा जा सकता था परन्तु नेहरु ठहरे सपनों में जीनेवाले और हम उनके द्वारा देखे गए आदर्शवादी सपनों का मूल्य आज तलक चुका रहे हैं और आगे भी चुकाते रहेंगे.बाद में शास्त्री और इंदिरा को पाकिस्तान से जमीन वापस पाने का अवसर भी मिला परन्तु ये लोग युद्ध जीतने के बाद मन में अचानक पैदा हुए आदर्शवाद के चलते ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे.भारत को गांधी-नेहरु परिवार के कुशासन से बचाया जा सकता था यदि शास्त्री की रहस्यमय स्थितियों में मौत नहीं हुई होती परन्तु शास्त्री की मौत होनी थी सो हुई.कैसे हुई सामने आना चाहिए था परन्तु यह तब भी रहस्य था आज भी रहस्य है.इसी तरह मेरे,मेरे राज्य और मेरे देश के जीवन में बहुत-कुछ ऐसा होता रहा जैसा होना नहीं चाहिए था परन्तु उनकी व्याख्या इस आधार पर नहीं की जा सकती कि ऐसा हुआ होता तो क्या होता और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो क्या नहीं होता.बल्कि उन्हें अब सिर्फ होनी ही कहा जा सकता है.आज देश के जो हालात हैं उस पर गोपी फिल्म का 'रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा,हंस चुनेगा दाना धूर्त कौआ मोती खायेगा' वाला गीत एकदम सटीक बैठता है.आजादी के दीवाने शहीदों ने देश के भविष्य के बारे में क्या-क्या सपने देखे थे परन्तु जब बहार आने का समय आया तो हर डाल पर उल्लू नजर आने लगे.भारतेंदु ने सवा शताब्दी पहले जब भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी लिखा था तब वे नहीं जानते थे कि इतने समय बाद भी उनके ये नाटक सामयिक बने रहेंगे.ठीक यही बात प्रेमचंद के गोदान के बारे में भी कहा जा सकता है जिसके प्रकाशन के भी ८० साल होने को हैं.परन्तु सच्चाई तो यही है कि देश में आज भी अंधेर मचा हुआ है और चौपट लोगों का शासन है.सच यह भी है कि जनता चाहे तो अच्छे लोग भी सत्ता में आ सकते हैं परन्तु अगर नेता ५० साल पहले वाले नेता नहीं रहे तो जनता भी तो ५० साल पहले वाली जनता नहीं रही.और इस परन्तु के बार-बार आने का सबसे बड़ा कारण यही है कि हम अब तक अपने आपको लोकतंत्र के मुताबिक ढाल ही नहीं पाए हैं.लोकतंत्र में वोट से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती है नैतिकता.मतदाताओं में नैतिकता का जो स्तर होगा लोकतंत्र का भी वही स्तर होगा परन्तु सरकारें और चुनाव आयोग का सारा जोर सिर्फ मतदान के प्रतिशत में वृद्धि पर होता है.जड़ का कहीं पता ही नहीं और सिंचाई हो रही है तने की.सिर्फ और सिर्फ इसलिए यह परन्तु वाक्यों में घुसपैठ कर जा रहा है क्योंकि हमारा नैतिक पतन हो रहा है.हम चाहकर भी तब तक इससे पीछा नहीं छुड़ा सकते जब तक हमारी नैतिकता का ग्राफ गोते लगाने के बदले ऊपर नहीं उठने लगे और जब तक नैतिक के सेंसेक्स में वृद्धि दर्ज होना शुरू नहीं होता हमें न चाहते हुए भी इसके साथ ही जीना होगा.
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