प्रिय सू की बहन,
सादर वंदेमातरम।
आखिरकार उद्दण्ड जुंटा सरकार ने आपके सत्याग्रह के समक्ष घुटने टेकते हुए आपको मुक्त कर ही दिया और आप एक लंबे अंतराल के बाद पुनः अपने समर्थकोँ के मध्य हैँ।अपने देश मेँ लोकतंत्र की प्रतिष्ठा के लिए आपका त्रासदीपूर्ण संघर्ष युगोँ-युगोँ तक याद रखा जायेगा।’अबला केनो माँ एतो बले’।एक स्त्री होने के बावजूद जिस अदम्य दृढ़ता और पौरुष का प्रदर्शन आपने किया है,वह अनुकरणीय है और वैसा करना तो पुरुष देहधारी बड़े-बड़े दुर्दान्त महानुभावोँ के लिये भी दुर्लभ है।हाँ, सत्याग्रह का नाम देकर उस नाम पर ठगने वाले तो बहुत है किन्तु वास्तविक सत्याग्रह तो केवल आपने ही किया है, ऐसी मेरी मान्यता है।
1937 मेँ अप्रिल फूल के दिन यदि हम भाई बहन को मूर्ख बनाकर अलग न किया गया होता तो शायद आज हम और आप एक ही देश होते, किन्तु प्रारब्ध को यह मंजूर नहीँ था और अंग्रेजो की कुटिल चालोँ ने हमे अलग कर दिया।मुझे आज भी ‘मेरे पिया गये रंगून, किया है वहाँ से टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है, जिया मेँ आग लगाती है’ वाला गाना जब भी याद आता है, तो यही लगता है कि जैसे रंगून हमारे ही देश का कोई शहर हो।मुझे यह भी याद आता है कि
सहस्त्राब्दियोँ पहले जब हमारा देश ‘सोने (एक धातु) की चिड़ियाँ’ कहा जाता था तो आपका भूभाग भी हमारा ही अंग हुआ करता था और आपके देश से लगायत थाइलैँड, लाओस तक को सुवर्णभूमि के नाम से जाना जाता था।तब लुटेरे नहीँ आये थे।हम अपने घरोँ मेँ ताला भी तो नहीँ लगाते थे।वह भी एक समय हुआ करता था, जब थेरवाद का शंख यहाँ फूँका जाता था और बिना एक क्षण का विलम्ब किये गूँज वहाँ सुनाई पड़ने लगती थी।आज भी ‘यमा जातदा, के रुप मेँ आपके देश मेँ रामायण ही तो पढ़ा जाता है।आज तो हमारे ही देश मेँ वेद का लबेद हो गया है।क्या इस बात से कोई इंकार कर सकता है कि दक्षिण भारतीय लिपि और पाली के सम्मिश्रण ने आपकी बामर भाषा को आकार दिया है।घृणित कम्यूनिष्टोँ के लिये तो यह भी संभव है।एक छोटे से पत्र मेँ समूची बातोँ को नहीँ रखा जा सकता।हाँ, इतना अवश्य है की आपकी मुक्ति भी मुझे भारतीय सत्ता हस्तांतरण की तरह आधी अधूरी ही दिखाई पड़ती है।
भारत स्वतंत्र हुआ, विभाजन के साथ, बिना अल्पसंख्यक समस्या का निस्तारण किये और आप की मुक्ति हुई तो श्रीहीन, शक्तिहीन बनाकर।ने विन ने यू नू का तख्ता पलट दिया, 3000 से अधिक क्रान्तिकारियोँ को गोलियोँ से भून दिया गया।
आप जब प्रचण्ड बहुमत से आईँ तो आपको नजरबन्द कर दिया गया और जब आपकी पार्टी ने चुनावोँ का बहिष्कार कर दिया तब उसकी मान्यता निरस्त कर, आपको मुक्त कर दिया गया।आज विश्व का प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति अधर्म के विरुद्ध युद्ध मेँ आपके साथ है किन्तु उनकी आवाज आप तक पहुँच ही नहीँ सकती।सैन्य तानाशाही लोकतंत्र का बाना ओढ़कर एक बार फिर से सत्तारुढ़ हो चुकी है और आपका पड़ोसी हमारा देश, विदेशनीति के मामले मेँ अपंग होकर गलत को सही और सही को गलत मानते हुए दिग्भ्रम का शिकार हो गया है।क्या करेँ?’महिमा घटी समुद्र की रावण बसा पड़ोस’ हम दोनो को एक ही पड़ोसी परेशान कर रहा है।आगे आप खुद ही समझदार हो।
ॐ मणिपद्मने हुं
17.11.10
प्रिय सू की बहन
Posted by Manoj Kumar Singh 'Mayank'
Labels: आंग सान सू की, बर्मा, म्यांमार
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