सवेरे सवेरे धर्मपरायण मिश्रा जी का विष्णुसहस्त्रनाम कान में पड़ा तो मैं जान गया कि आज फिर उठने में देर हो गयी । दीवार पर नजर डाली तो घड़ी ने मुस्कुरा कर कहा प्यारे कृष्ण सवेरे के आठ कब के बज चुके हैं, देर रात पौने दो बजे जब मैंने आपको टोका था तब जाकर आप इंटरनेट छोड़ निद्रालीन हुये थे ।
.मोहन बाबू बड़े धैर्य के साथ अखबार का एक एक पन्ना चाटे पड़े थे । कभी वो बैठे बैठे मुस्कुराने लगते और कभी उनके चेहरे पर ऐसे हाव भाव आते जैसे कलमाड़ी उनके सामने सिर झुकाये बैठे हों और वे उनसे कामनवेल्थगेम्स का हिसाब मांग रहे हों ।
.मैंने उठ कर मोहन बाबू को गुडमार्निंग कहा – देखिये संभाल कर पढ़ियेगा पिछली बार कुछ अक्षर घिस डाले थे आपने नजर गड़ा कर । बाद में हम लोगों को आधा-तीहा अखबार पढ़ने को मिलता है । जगह जगह से छिला, घिसा हुआ ।
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मोहन बाबू ने अपना तेजोमय चेहरा मेरा सामने किया । मैं उनके उन्नत ललाट को देखकर सहम गया फिर पीठ को तकिये का सहारा दे कर उनके श्रीमुख को निहारने लगा और लगे हाथ स्मरण किया इस देश की मीडिया को जिनकी खबरें और कहीं धमका करें न करें पर यह घर जो कि मोहनबाबू नामक ज्वालामुखी के दहाने पर हर वक्त बैठा रहता है कब देश और समाज की स्थिति पर लावा उगलने लगें इसका अंदेशा हर वक्त और उनके अखबार पढ़ते वक्त हमेशा रहता है ।.
मोहनबाबू ने अपनी आंखों में कोटि कोटि सूर्यों का तेज धारण करते हुये कहा – मैं न कहता था कि स्विस बैंक में भारत के काले अंग्रेजों का कई लाख करोड़ रूपया जमा है ।
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मैं रात में ही नेट पर यह खबर पढ़ चुका था इसलिये कोयी खास उत्सुकता नहीं हुयी लेकिन मोहनबाबू का दर्शनीय रौद्ररूप देखने की लालसा और सवेरे सवेरे
मुफ्त का एक्शन टीवी और कार्टून नेटवर्क का कॉकटेल कौन पागल छोड़ता ।
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मोहनबाबू जोश में दहाड़े – मैं पूछता हूं इन वकील साहब से कि देश में इतना भ्रष्टाचार हो रहा है । रोज नये नये घोटलों की पोल खुल रही है । आपकी न्यायपालिका क्या अखबार नहीं पढ़ती । वैसे तो खूब सू मोटो (स्वतः संज्ञान) का नारा लगाया जाता है लेकिन ऐसे मामलों के लिये बाबा रामदेव और स्वामी सुब्रामण्यम की जनहित याचिका का इंतजार किया जाता है और फिर उन याचिकाओं को पेंडिग केसेज के अंधमहासागर में डूबो कर देशहित के मुद्दों का गला घोंट दिया जाता है ।
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मिश्रा जी अब तक बजरंगबाण का संधान कर घूपबत्ती हाथ में लिये कमरा सुवासित कर रहे थे । मुस्कुरा कर बोले – क्यों सुबह सुबह अपना खून जलाते रहते हो । अब जब स्विस सरकार ने कुबूल ही लिया है कि उसकी बैंकों में बीसों लाख करोड़ भारतीय रूपया पड़े पड़े सड़ रहा है तो जैसे यहां पड़ा है वैसे वहां पड़ा है । जब जरूरत होगी निकाल लायेंगे । इसमें न्यायपालिका का क्या कसूर । अगर देश में लाखों कराड़ों केस पेंडिंग पड़े हैं तो विधायिका अदालतों का विस्तार करे । हजारों न्यायिक पद खाली पड़े हैं उन पर भर्ती कराये । तमाम ऐसे मामले जो मध्यस्तता या काउंसलिंग से निपट सकते हैं उन्हें दूर कर अदालतों के ऊपर से बोझ हटाया जा सकता है । अधिवक्ताओं की कार्यप्रणाली की समीक्षा की जाये । अब ऐसे काम के लिये न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जो विधायिका का है, संसद का है ।
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संक्षिप्त भाषण देकर मिश्र जी नयी धूपबत्ती का धुंआ कलेण्डरवासी, लड्डूओं पर लट्टू गणेशजी को सुंघाने दीवार की तरफ बढ़ गये ।
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इधर मोहनबाबू भी अपने पायजामें का नाड़ा और कमर कस कर तैयार हो गये और अगला बाण धनुष से खेंच मारा – और न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार पर आपका क्या कहना है ।
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वकील मिश्रा जी बड़ी चालाकी से मोहनबाबू के प्रश्नबाण को ढाल रूपी भगवत् गीता के एक श्लोक पर झेल गये – सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो.मत्तरू स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । अर्थात मैं ही सबके हृदय में अन्तर्यामी रुप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और उसका अभाव होता है ।
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मोहनबाबू गरजे – मिश्रा जी क्या भ्रष्टाचार इतना व्यापक हो गया है कि उसकी तुलना अब आप योगेश्वर श्री कृष्ण से करेंगे । सुना था कि अदालत में वकील कुतर्क करते हैं लेकिन आपसे यह उम्मीद नहीं थी ।
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इसके पहले की मोहनबाबू और मिश्रा जी के बीच गृहयुद्ध शुरू होता मैंने बीचबचाव किया – मोहन भईया लोन घोटाले के बारे क्या कुछ नहीं छापा है आपके प्रिय अखबार ने ।
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मोहनबाबू को एकाएक फिर एक नया हथियार मिल गया । वे फिर रथ का चक्का हाथ में उठा कर मिश्रा जी की तरफ लपके – आपको मालूम है लोन घोटाले पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्रद्धेय मंटोक सिंह जी का कहना है कि एक हजार करोड़ के घोटाले को घोटाला नहीं कहना चाहिये ।
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