नज़दीकिया...
कभी वही लोग हमें अपनी पलकों पे रखते थे
आज वही अपनी आंखो के अश्क से दूर रखते थे..
मेरी मुकम्मल जिद़गी को आवारा कहा जिसने
हमें मालूम है वही एक दिन मेरा आशियाना संजायेगे
एक दो दर्द नहीं ज़िस्म है सारा ज़ख्मी
दर्द बेचारा परेशां है ये कहा आ गये हम..
बड़े इल्म से पढ़ने बैठा तुरबतों पर ज़ुहर
क्या करे निकहत सामने नज़र आयी...
मेरी कब्र का तबर्रुक लेने पहुंचे सारे लोग
जिसका इंतज़ार था बड़ी शिद्दत से वह नजमुस्सहर नहीं आयी...
सेहरा लिए बैठी रही इंतज़ार में मेरे
बिना ईशा किए जाता नहीं हूं मै...
16.11.10
हल्ला गुल्ला...: नज़दीकिया...
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