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5.1.12

मेरी कविता...


तड़पते बिलखते इस दिल को
तेरा सहारा मिला होता
समुंद्र की इन लहरों को
कोई तो किनारा मिला होता
अधूरे सपनों को संजोए,
अभी भी जिन्दा हूं मैं
सपने पूरे होते तो
कब के मर गए होते हम
रोज चांद ढलता है, सूरज उगता है
क्यों नहीं देती सुनाई
रोज बारिसों की हलचल
नौकरी में इतना न खो जाना मेरे दोस्त
की हमारा ध्यान ही ना रहे
खुश रहो तुम महफिल में,
पर हमारे जज्बात की की कोई कद्र नहीं
रोज मिलते हो हमसे
पर महज एक औपचारिकताओं में
कभी प्रेम की तृष्णा को भी महसूस करो
ये दिल हर वक्त इसी चाह में धड़कता है
वो मेरे प्रेम को समझेंगे
साथ ही पूरे होंगे सपने मेरे
अकेली बैठ खिड़की के किनारे
पल-पल तुम्हारे आने की राह तकती हूं
हर रोज अकेले सिर्फ तुम्हारी
आहट सुनने को तरसती हूं
तड़पता है दिल, बिलख उठती उठती है निगाहें
फिर भी नहीं पहुंचता
तुम तक संदेशा मेरे अहसास का
इंतजार के बाद जब थक जाते नैना मेरे
तो बंद कर आंखें गिनती हूं ७ तक गिनतियां
शायद आखरी अंक पर उनका फोन आ जाए...............


यकीन मानिए फोन जरूर आया

कृत शशिकला सिंह।

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