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5.11.15

पत्रकारिता की ईमानदारी पैकेज में हो रही तब्दील

आज से कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी, अपहरण। जिसमें अजय देवगण ने एक बेरोजगार युवक के किरदार को जिया था। इस फिल्म में उनके पिता का रोल मोहन अगाषे ने एक ईमानदार पत्रकार की भूमिका अदा की। मैं इस पिक्चर की कहानी आपको इसलिए सुना रहा हूं कि फिल्म के शुरूआतीे दृष्य में एक मंत्री जब बेरोजगार बेटे के लिए उसके ईमानदार पत्रकार पिता के पास नौकरी का ज्वांइनिंग लेटर लेकर उसके घर पर आधी रात को आता है और कहता है कि आपके बेटे को यह नौकरी मिल सकती है, बर्षते आपको कल सुबह हमारी खबर प्रकाषित नहीं करनी है, लेकिन उस पत्रकार ने अपने बेटे के भविष्य की परवाह किए बिना अपने लेख को प्रकाषित कर शासन के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया। न जाने इतने कैसे ऐसे दृष्य पिक्चरों में आपने देखें होंगे, जिसके बाद समाज में पत्रकारों को एक प्रहरी के तौर पर समझा जाने लगा। मैने फिल्मों के दृष्य की बात इसलिए भी यहां कि क्योंकि शायद ऐसी पत्रकारिता भौतिकवादी के संसार में अब कहीं विलुप्त सी हो गई है। पत्रकारिता अब देष या समाज का आइना बनने के लिए नहीं बल्कि नौकरी की तरह किया जा रहा है। पत्रकारिता आज के इस व्यवसायिक युग में कहीं खो सा गया है। प्रतिभाएं दब सी गई है।



आज के युवा का एक धरा पत्रकारिता के पीछे इसलिए भाग रहा है क्योंकि कैमरे की दुनिया में उसकी चाहत को पूरा करने की मैं यहां से बोल रहा हूं और आप इस वक्त ऐसा देख रहे हैं। चैनलों अब अखबरों में चुनाव आते ही या फिर कोई फेस्टिवल आते ही पैकजों की मांग तक बढ़ गई। मुझे तो शर्म तब आई जब देष के एक नंबर वन चैनल कहे जाने वाले पर बिग बाॅस जैसे कार्यक्रमों की दिषा तय करते हुए कुछ एंकर उनके प्रषांसा में ताना बाना बुन रहे थे। मैने सोचा क्या ये पत्रकार और ये पत्रकारिता है। शायद में मुझे किसी पत्रकार के गुरू ने ऐसा पाठ तो पढाया नहीं। हां अब ये जरूर समझने लगा हूं कि पत्रकारिता करनी है तो एक पाठ आपको चाटुकारिता भी आनी चाहिए और शायद आज के दौर में भी वही टिक सकता है जिसने इस पाठ का गहन अध्ययन ठीक से किया हो।

देष की दिषा और दषा तो मैं तय नहीं कर सकता एक पत्रकार के तौर पर लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि पत्रकारिता की अस्मिता और असतित्व कहीं खो सी गई है और शायद इस पैकेजिंग के दौर में कभी लौट कर अब आए भी नहीं। उपर बैठे लोग जमीनी स्तर काम करने वाले पत्रकारों को कोई मोल नहीं देते उन्हें तो सिर्फ अपने एसी कमरों में बैठ कर चोरी के फुटेज की या अखबारों में पोर्टलों के माध्यम से काॅलम की तलाष होती है, जिससे अपने खांके को पूरा कर सकें। बांकी टाइम तो सिर्फ लाइजनिंग करने में बीताते हैं। पत्रकार अपने आप को इतना व्यस्त बतातें हैं जैसे मानों पूरे देष की जिम्मेदारी सरकार और प्रषासन के बाद उन्हीं के कंधों पर हो, लेकिन उन्हें कौन बताए की अब शायद उन्हें कोई नहीं पूछता। बात वही हो पत्रकारों की जैसे बैगाने शादी में अब्दुला दिवाना।
एक पार्षद स्तर तक का इंसान भी जमीनी पत्रकारों से नहीं बल्कि उसके चैनल या अखबार के मालिक से बात करने की हैसियत रखता है और यह भी कहने से गुरेज नहीं करता कि ज्यादा सवाल पूछोगे तो नौकरी से निकलवा दूंगा।  न जाने तमाम ऐसी कितनी बातें और उन बातों में उदाहरण जिससे यह पता चल गया कि अब कोई भी पत्रकार सिर्फ नौकरी करते हैं न कि पत्रकारिता।

मैंने देखा उस दौर को भी जब एक संपादक से मिलने के लिए नेता और प्रषासन के आला अफसर मिलने का समय मांगा करते थे, लेकिन आज के जमीनी कार्यकर्ता से भी संपादक अगर हाथ मिला ले तो वह अपने आप को भाग्यषाली समझने लगता है। मैं ये नहीं करता कि हमें किसी का सम्मान नहीं करना चाहिए, लेकिन क्या अब पत्रकारिता उस दौर से गुजर रही है जहां एक पत्रकार का सम्मान हो रहा है। पत्रकारिता की परिभाषा क्या है, शायद आज की पत्रकारिता की परिभाषा तो मुझे नहीं पता और जब होती थी तो वह मूल पत्रकारिता लोग भूल चुके हैं। इसलिए सभी पत्रकारों से निवेदन है कि कृप्या कर लोगों का खोया भरोसा जल्द ही जीतें वर्ना हम भी नेताओं और पुलिस की श्रेणी में आकर खड़े हो जाएंगे, जिसकी शुरूआत कहीं ना कहीं षुरू हो चुकी है। पत्रकारिता के भविष्य को बचाएं।

मदन झा
9329021253
rajmadan29@gmail.com

1 comment:

Anonymous said...

Iska dusra reasion yah bhi hai ki farji patrakar ya kahe Ghar Ghar patrakar paida ho rhe hai jo Bina kisi degree ya Bina education ke bhi hote hai or in logo ki vajah se original patrakaro ko nuksaan uthana padta hai