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14.4.19

आत्म अनुभूति के लिए ध्यान अनिवार्य है अन्यथा व्यक्ति के हृदय में ईश रस नहीं बहता

दर्पण आश्रम का तीसरा उपनिषद् श्रंखला राम नवमी के मौके पर हुआ सम्पन्न




बैंगलुरु। शनिवार शाम राम नवमी के अवसर पर बेलंदूर स्थित आदर्श पाम रिट्रीट गेटेड कम्यूनिटी में दर्पण फ़ाउंडेशन ट्रस्ट एवं अखिल भारतीय समाज सेवी संस्था यूनिवर्सल फ़ोरम फ़ॉर ह्यूमन डिग्निटी की कर्नाटक इकाई द्वारा आईटी क्षेत्र बहुल श्रोताओं के लिए उपनिषद् श्रंखला की तीसरी कड़ी का आयोजन किया गया जिसका विषय था- “आध्यात्मिकता कैसे व्यक्तिगत सम्बंध और उद्यमिता में मूल्यवत्ता प्रकट करती है?”.

इस विषय पर बोलते हुए दर्पण आश्रम के संस्थापक व सहज स्मृति योग प्रणेता नंदकिशोर तिवारी ने सरल ढंग से अध्यात्म के विशद फ़लक को श्रोताओं के समक्ष खोलते हुए कहा कि ईश्वर परमात्मा के स्वरूप में परम रस है। वही सभी नाम रूपों से परे भी तथा सभी नाम-रूपों को धरे भी और सनातन क्षण को धरे भी राम है। पर, उसकी अनुभूति पाने के लिए जीव-आत्मा को ध्यान अवस्था में होना चाहिए। उन्होंने कहा यदि व्यक्ति सदा ध्यान की उस अवस्था से व्यवहार करे जिसमें वह जीवन के प्रत्येक क्षण को केवल विचार के रूप में ही नहीं, वरन भाव के स्तर पर भी अंतिम क्षण माने-जाने तो वह गुरु की दृष्टि में शाश्वत क्षण में प्रवेश पाने के लिए तैयार हो जाता है। जीवन के अंतिम क्षण में सब सच्चे हो जाते हैं, यह ईश्वरीय विधान है। इसलिए वह पराक्रम पूर्वक सत्य धारण कर पाएगा।

ध्यानमूलम् गुरूर्रमूर्तिम् की अभिनव व्याख्या प्रस्तुत कर नवीन अर्थ उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा कि जीवंत या मूर्तिमान गुरु ही उस ध्यान अवस्था का मूल है। इसलिए आत्म अनुभूति के लिए ध्यान अनिवार्य है अन्यथा, व्यक्ति के हृदय में ईश रस नहीं बहता। वह सूखा ज्ञानी बनकर रह जाता है। वैसे ही ज्ञान को धारण करने के लिए चरित्र अनिवार्य है अन्यथा उसका ज्ञान कोरी सूचना रह जाती है और वह व्यक्ति मात्र उदर पोषक बुद्धिजीवी बनकर  रह जाता है। आज भिन्न भिन्न रूपों में यही उदर पोषक व्यक्ति नेतृत्व प्रदान कर रहा है। यही स्थिति विडम्बनापूर्ण है। इसे बदलना ही होगा। अन्यथा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा भयावह प्राकृतिक असंतुलन रोकना सम्भव न होगा। क्योंकि यह नेतृत्व अंधे की भाँति समाज को दृष्टि हीन कर रहा है। उसे प्रकृति से काट रहा है। उत्पादकता के ऐसे व्यूह में उसे धांस रहा है कि उसे साँस लेना दूभर होता जा रहा है।

अधिकांशत: देखा यही जा रहा है कि व्यक्ति के अपने इसी सूचना बाहुल्य वाले मन के, ज्ञान और ध्यान में सही सम्बंध को स्थापित न कर पाने से उसके जीवन में शोक, मोह, संदेश और भ्रम का प्रवेश होता रहता है। क्योंकि प्राथमिकताओं को धारण करने का सही क्रम वह गुरु के अभाव में धारण करना ही भूल चुका होता है। और अपनी सहज स्मृति के इसी वियोग ने उसे उसकी दिव्य आत्मिक अवस्था से मात्र उपभोक्ता में अध:पतित कर दिया होता है। गुरु प्रदत्त अपनी सहज स्मृति से योग ही वह औषधि है जो हमें इस बीमारी से उबार सकती है। उन्होंने बातचीत के अपने विशिष्ट अन्दाज़ में कहा कि आज के समय को तो डेटा युग की संज्ञा दी जा रही है। अर्थात डेटा की प्रधानता है ;अन्य चीज़ों की अपेक्षा। कुछ समय पहले तक बड़ा कार्यालय होना, ख़ूब कर्मचारी होना यह सब निर्णायक होता था व्यवसाय करने में परंतु अब ऐसा नहीं है 'को-वर्किंग स्पेसेज़ तथा वर्चूअल ऑफ़िसेस' का चलन आ गया है।

छोटी छोटी स्टार्टपस कंपनिया आँकड़ों को बेहतर डिज़ाइन में प्रस्तुत कर, बाज़ार में उभरी उपभोक्ता की ज़रूरतों को जोकि अक्सर ग़ैर ज़रूरी ज़रूरत ही होती हैं, उनको पूरा करने का समाधान बनकर रातों रात बड़ी हस्ती बन जाती हैं। दूसरी तरफ़ बड़ीं कम्पनी का डेटा या आँकड़ा ज़रा सा इधर उधर हुआ नहीं कि पूरी की पूरी कम्पनी या व्यावसायिक प्रतिष्ठान ही ढहने की कगार पर पहुँच जाता है। तब उससे जुड़े लोग असुरक्षित महसूस करने लगते हैं क्योंकि वे ऐसी सुविधाओं के वशीभूत हो चुके होते हैं जो उनके लिए अनिवार्य थीं ही नहीं। लेकिन अब वे सुविधाएँ उनके लिए समाज में प्रतिष्ठा का प्रश्न और शरीर के लिए आदतें बन चुकी होतीं हैं, और इसलिए सुविधाओं के जाने से पारिवारिक-वैयक्तिक जीवन में असंतुलन आने व सामाजिक अपमान होने या प्रतिष्ठा गिरने के भय से ग्रस्त होने पर उन्हें मानसिक बीमारियाँ हो रही हैं।

उनके जीवन में असत्य का प्रवेश हो जाता है क्योंकि अब वे उस भाव को प्राथमिकता पर रखकर काम कर रहे होते हैं जिसका उद्भव भय और ग़ैर ज़रूरी ज़रूरतों पर आश्रित होता है। जिसका असर सब पर पड़ता है। पर, जैसे घर में एक व्यक्ति भी अस्वस्थ हो तो सब की मन:स्थिति पर उसका असर होता है। वैसे ही घर में यदि एक व्यक्ति भी पूर्णत: स्वस्थ अर्थात स्व में स्थित हो, सत्य में प्रतिष्ठित हो तो उसके प्रभाव का लाभ भी तो पूरे परिवार को मिलता है? इसी बिन्दु को ठीक से समझ लेने से व्यक्ति प्रज्ञावान होकर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ जाता है।

ठीक से नहीं समझने पर बुद्धि के भँवर में फँसकर उत्तरजीविता के चक्र में जुता रहकर संसार में भ्रमण करता रहता है। सहज स्मृति योग के विभिन्न चतुष्पदीय उपादानों में से एक “शुद्ध भोजन चतुष्पदी “ की उपयोगिता बताते हुए उन्होंने इसे देश, धर्म, व्यक्ति भेद से परे बताते हुए इसे सम्पूर्ण मानवता व वसुंधरा के लिए उसे वर्तमान समय का समाधान बताया। पूर्व घोषित दो घंटे की अवधि का यह उपनिषद तीन घंटे तक चला। उपनिषद् में प्रश्नकर्ता की एंकरिंग शीतल शाह ने निभाई।

अंत में सभी अनुशासित और विशिष्ट श्रोताओं से खचाखच भरे रहे हाल में उनके द्वारा किए प्रश्नों के समाधान प्रस्तुत करने और क्रमशः मधुबनी, ग़ोंड़ तथा मंडला कला के लिए समर्पित चार कलाकारों रंजनी रमेश, वेदा, यमुना नित्या को उक्त कलाओं को निस्वार्थ भाव से जीवित रखने के प्रयासों के लिए सम्मानित करने तथा प्रसाद वितरण के साथ सम्पन्न कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

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